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शान्तसुधारस
ममत्व को करने और फिर उसे छोड़ने वाले तथा जन्म और मरण के चक्र में परिवर्तनशील सभी प्राणियों के द्वारा यह लोकाकाश अनन्त बार बहुत परिचित हो चुका है।
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इह पर्यटनपराङ्मुखाः, प्रणमत भगवन्तम् । शान्तसुधारसपानतो, धृतविनयमवन्तम्॥८॥
इस संसार-भ्रमण से पराङ्मुख बने हुए तुम भगवान् को प्रणाम करो, जो शान्तसुधारस के पान से विनय को धारण करने वाले पुरुष की रक्षा करते हैं।