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शान्तसुधारस
छह द्रव्य उसका शरीर है। वह अकृत्रिम तथा अनादि-अनन्त है। वह धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-इन छह द्रव्यों से परिव्याप्त है। ६. 'रङ्गस्थानं पुद्गलानां नटानां,
नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च। कालोद्योगस्वस्वभावादिभावैः,
कर्मातोद्यैर्नर्त्तितानां नियत्या।। वह लोकपुरुष एक रंगमंच है। इसमें पुद्गल और जीवरूपी नट नाना रूप बनाकर नृत्य कर रहे हैं। काल, पुरुषार्थ, स्वभाव आदि भाव, कर्मरूपी वाद्य तथा नियति-ये सब उन्हें नचा रहे हैं। ७. एवं लोको भाव्यमानो विविक्त्या,
विज्ञानां स्यान्मानसस्थैर्यहेतुः। स्थैर्य प्राप्ते मानसे चात्मनीना,
सुप्राप्यैवाऽध्यात्मसौख्यप्रसूतिः॥ इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से अनुचिन्तित किया जाता हुआ वह लोकपुरुष विज्ञजनों के लिए मन की स्थिरता का हेतु बनता है। मन की स्थिरता होने पर आत्महितकारी अध्यात्मसुख की उत्पत्ति सहज ही सुलभ बन जाती है।
गीतिका ११ : काफीरागेण गीयते
विनय! विभावय शाश्वतं, हृदि लोकाकाशम्।
सकलचराचरधारणे, परिणमदवकाशम्॥१॥ हे विनय! तू अपने अन्तःकरण में शाश्वत लोकाकाश का अनुचिन्तन कर, जो सकल चर-अचर पदार्थों को धारण करने के लिए अवकाशरूप में परिणत हो रहा है।
लसदलोकपरिवेष्टितं, गणनाऽतिगमानम्।
पञ्चभिरपि धर्मादिभिः सुघटितसीमानम्॥२॥ वह लोकपुरुष कान्तिमय अलोकाकाश से घिरा हुआ है। वह गणना से १-२. शालिनी। ३. गणनामतिगतं मानं-प्रमाणं यस्य, तद्।