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शान्तसुधारस
उस निगोद से निकल जाने पर भी जीव स्थावर-योनि में जन्म लेते हैं। उनके लिए त्रस होना दुर्लभ है। त्रस होने पर भी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और समनस्क होना उत्तरोत्तर दुर्लभ होता है। इसके प्राप्त होने पर भी दीर्घ आयुष्य वाला मनुष्यजन्म मिलना दुर्लभ है। ४. 'तदेतन्मनुष्यत्वमाप्याऽपि मूढो,
__महामोहमिथ्यात्वमायोपगूढः। भ्रमन् दूरमग्नो भवागाधगर्ते,
पुनः क्व प्रपद्येत तद् बोधिरत्नम्॥ उस मनुष्य-जन्म को पाकर भी महामोह, मिथ्यात्व और माया से आश्लिष्ट बना हुआ मूढ़ व्यक्ति संसार में भ्रमण करता हुआ और जन्म-मरण के अगाध गर्त में गहरा डूबा हुआ वह पुनः उस बोधिरत्न को कहां प्राप्त करता है? ५. विभिन्नाः पन्थानः प्रतिपदमनल्पाश्च मतिनः,
___ कुयुक्तिव्यासंगैर्निजनिजमतोल्लासरसिकाः। न देवाः सान्निध्यं विदधति न वा कोऽप्यतिशय
स्तदेवं कालेऽस्मिन् य इह दृढधर्मा स सुकृती।। इस कलिकाल में पग-पग पर अनेक पन्थ और अनेक मतावलम्बी हैं, जो कुतों में आसक्त होकर अपने-अपने मतों को पुष्ट करने में रस ले रहे हैं। इस समय न देवता सान्निध्य–सन्निकटता कर रहे हैं और न ही कोई अतिशय प्राप्त है। ऐसे समय में जो व्यक्ति धर्म में दृढ़ है, वही पुण्यशाली है। ६. 'यावहेहमिदं गदैर्न मृदितं नो वा जराजर्जरं,
यावत्त्वक्षकदम्बकं स्वविषयज्ञानावगाहक्षमम्। यावच्चायुरभङ्गरं निजहिते तावद् बुधैर्यत्यतां,
कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते?
जब तक यह शरीर रोगों से चूर-चूर न हो, जरा से जीर्ण न हो, जब तक इन्द्रियसमूह अपने-अपने विषयज्ञान के अवगाहन में समर्थ रहे, जब तक आयु क्षीण न हो तब तक विज्ञपुरुषों को अपने हित के लिए प्रयत्न कर लेना चाहिए। तालाब के फूट जाने तथा पानी के प्रवाहित हो जाने पर पाल को बांधने का प्रयोजन ही क्या? १. भुजंगप्रयात। २. शिखरिणी। ३. शार्दूलविक्रीडित।