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बारहवां प्रकाश
बोधिदुर्लभ भावना
१. 'यस्माद् विस्मापयितसुमनःस्वर्गसम्पविलास
प्राप्तोल्लासाः पुनरपि जनिः सत्कुले भूरिभोगे। ब्रह्माद्वैतप्रगुणपदवीप्रापकं निःसपत्नं,
तद् दुष्प्रापं भृशमुरुधियः! सेव्यतां बोधिरत्नम्।। हे विशाल बुद्धि के धनी मनुष्यो! जिससे मनुष्य ने विस्मित करने वाली देवों की स्वर्ग-सम्पदा के विलास से उल्लास प्राप्त किया, फिर वहां से च्युत होकर प्रचुर भोग वाले श्रेष्ठ कुल में जन्म लिया, जो ब्रह्माद्वैत (शुद्ध चैतन्यमय) की उत्कृष्ट पदवी को प्राप्त कराने वाला है, जो असाधारण है जिसका कोई प्रतिपक्ष नहीं है, उस दुष्प्राप्य बोधिरत्न का तुम तीव्र भावना से आसेवन करो। २. अनादौ निगोदान्धकूपे स्थिताना
मजस्रं जनुर्मृत्युदुःखार्दितानाम्। परीणामशुद्धिः कुतस्तादृशी स्याद्,
यया हन्त! तस्माद् विनिर्यान्ति जीवाः।। अनादिकालीन निगोदरूपी अंधकूप में पड़े हुए तथा निरन्तर जन्म-मृत्यु के दुःख से पीड़ित जीवों के वैसे शुद्ध परिणाम कैसे हो सकते हैं, जिससे वे उस अंधकूप से बाहर आ सकें। ३. ततो निर्गतानामपि स्थावरत्वं,
त्रसत्वं पुनर्दुर्लभं देहभाजाम्। त्रसत्वेऽपि पञ्चाक्षपर्याप्तसंज्ञि
स्थिरायुष्यवद् दुर्लभं मानुषत्वम्॥ १. मन्दाक्रान्ता। २-३. भुजंगप्रयात।