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१३. संकेतिका
सर्दी की ठिठुरती लम्बी रातें और पैर में चुभा हुआ कांटा ! सारा ध्यान उस चुभन की ओर खिंच जाता है, अन्तःकरण अनायास ही अप्रसन्नता से भर जाता है। शत्रुता भी मनुष्य का एक कांटा है। जब-जब उसकी स्मृति प्रखर होती है तब-तब मनुष्य उस मानसिक चुभन से कराह उठता है । प्रतिशोध की भावना से उस चुभन का निवारण करना चाहता है। मनुष्य सामाजिक चेतना में जीता है। राग-द्वेष उसके सहचर हैं। किसी को वह मित्र और किसी को वह शत्रु बनाता है। शत्रु उतना बुरा नहीं होता जितना बुरा होता है शत्रुता का भाव । जब तक अन्तःकरण में शत्रुता का भाव बना रहता है तब तक मनुष्य निःशल्य नहीं बन सकता। वह शल्य उसके अनिष्ट का उत्तरदायी है।
मैत्री का विकास समत्व का विकास है, अभय का विकास है। भय और शत्रु- ये दोनों अलग-अलग शब्द नहीं हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसका मन भय से उद्विग्न होता है वही दूसरे को शत्रु मानता है। जिसके मन में कोई भय नहीं होता, वह अनिष्ट करने वालों को अज्ञानी मान सकता है, किन्तु उसे शत्रुरूप में स्वीकार नहीं कर सकता। मित्र के प्रति मित्रता स्वाभाविक है, किन्तु शत्रु के प्रति मैत्रीभाव अस्वाभाविक हो सकता है। जिसने मैत्री के इस महान् सूत्र को आत्मसात् किया, सबके प्रति मैत्री का प्रयोग किया, उसने इस जगतीतल में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का उदाहरण प्रस्तुत किया।
भगवान् महावीर मैत्री के मंत्रदाता थे। उन्होंने कहा- दूसरे का अनिष्ट करना या दूसरे का अनिष्ट सोचना स्वयं का ही अनिष्ट करना है। जो व्यक्ति इस सूत्र को पकड़ लेता है, वह कभी अनिष्ट का चिन्तन कर ही नहीं सकता। जीवन में रुचि और चिन्तन का भेद होता है, व्यवस्था और व्यवहार का भेद होता है, रहन-सहन और खान-पान का भेद होता है। भेद को कभी मिटाया नहीं जा सकता। जहां जीवन है वहां भेद रहेगा ही। उस भेद की जननी है यह राग-द्वेष की धारा। यह विभेद कभी-कभी मन में शत्रुता और द्वेष का प्रादुर्भाव