________________
लोक भावना अतीत है असंख्य है और उसकी सीमा धर्म आदि (अधर्म, काल, पुद्गल और जीव)-इन पांच द्रव्यों से सुघटित है।
समवघातसमये जिनैः१ परिपूरितदेहम्।
असुमदणुकविविधक्रियागुणगौरवगेहम् ॥३॥ केवलियों द्वारा किए जाने वाले केवलीसमुद्घात के समय इस लोकपुरुष का शरीर व्याप्त हो जाता है-लोकपुरुष के प्रत्येक आत्मप्रदेश में केवली का एक-एक आत्मप्रदेश व्याप्त हो जाता है। वह जीव-पुद्गल की विविध क्रियात्मक गुण-गौरव का आस्थान बना हुआ है।
एकरूपमपि पुद्गलैः, कृतविविधविवर्तम्।
क्वचन शैलशिखरोन्नतं, क्वचिदवनतगर्तम्॥४॥ वह लोकाकाश एकरूप होने पर भी पुद्गलों की विविध संरचनाओं के कारण नाना रूपवाला बना हुआ है। कहीं वह पर्वतशिखरों से ऊंचा है तो कहीं वह गहरे गढ़ों वाला है।
क्वचन तविषमणिमन्दिरैरुदितोदितरूपम्।
घोरतिमिरनरकादिभिः, क्वचनाऽतिविरूपम्॥५॥ कहीं वह स्वर्ग के मणिजटित मन्दिरों से उदितोदित रूपवाला है तो कहीं वह घोर अन्धकारमय नरकों से अत्यन्त विकृत रूपवाला है।
क्वचिदुत्सवमयमुज्ज्वलं, जयमङ्गलनादम्।
क्वचिदमन्दहाहारवं पृथुशोकविषादम्॥६॥ कहीं वह लोकाकाश जयमंगल के नाद से मुखर विशद उत्सवमय वातावरण वाला है तो कहीं वह अत्यधिक शोक और विषाद के कारण तीव्र हाहाकार से युक्त है।
बहुपरिचितमनन्तशो, निखिलैरपि सत्त्वैः। जन्ममरणपरिवर्तिभिः, कृतमुक्तममत्वैः॥७॥
१. जिन इति केवली।