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लोक भावना
१. 'सप्ताऽधोऽधो विस्तृता याः पृथिव्य -
श्छत्राकाराः सन्ति रत्नप्रभाद्याः ।
ताभिः पूर्णो योऽस्त्यधोलोक एतौ,
पादौ यस्य व्यायतौ सप्तरज्जूः ॥
रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियां क्रमशः एक-दूसरे के नीचे फैली हुई हैं। वे छत्र के आकार वाली हैं। अधोलोक उनसे व्याप्त है। यह लोकपुरुष के दोनों पैरों के स्थान में है। इनकी लम्बाई सात रज्जु प्रमाण है ।
२. तिर्यग्लोको विस्तृतो रज्जुमेकां,
पूर्णो द्वीपैरर्णवान्तैरसंख्यैः ।
यस्य ज्योतिश्चक्रकाञ्चीकलापं,
ग्यारहवां प्रकाश
मध्ये कार्यं श्रीविचित्रं कटित्रम् ॥
तिरछालोक एक रज्जु प्रमाण फैला हुआ है। वह असंख्य द्वीप और समुद्रों से परिपूर्ण है। उसका मध्यभाग कृश है। ज्योतिश्चक्र (सौरमण्डल) लोकपुरुष के कटि - स्थानीय देदीप्यमान कांची, कलाप और कटिसूत्र जैसा लग रहा है।
१. शालिनी । २. अत्र 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' (भिक्षु. २/४/५६ ) इति सूत्रेण द्वितीया । एवं पञ्वरज्जूरपि सिद्धः । ३. रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा महातमः प्रभा । ४. शालिनी । ५. इकहरे कटिसूत्र ( करधनी ) को कांची तथा पच्चीस लड़ वाले कटिसूत्र को कलाप कहा जाता है
'एकयष्टिर्भवेत् काञ्ची, मेखला त्वष्टयष्टिका । रसना षोडशी ज्ञेया, कलापः पञ्चविंशकः'।।