________________
१०. संकेतिका
मनुष्य सदा से ही अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर तथा अयथार्थ से यथार्थ की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता रहा है। धर्म जीवन के लिए प्रकाश है, अमरत्व है और यथार्थ है। जिसके जीवन में धर्म नहीं है वह व्यक्ति अंधकार का जीवन जीता है, मृत्यु और कृत्रिमता का जीवन जीता है। धर्म आत्मा का सहज परिणमन है और उसकी सबसे बड़ी निष्पत्ति है-अपने स्वाभाविकरूप की खोज। जहां धर्म का आचरण नहीं होता वहां धर्म-अधर्म की भेदरेखा समाप्त हो जाती है, जीवन का सारा व्यवहार चरमरा जाता है। यदि परमार्थ की बात भी छोड़ दी जाए तब भी मनुष्य के लौकिक सम्बन्धों की पवित्रता धर्म के आधार पर ही आंकी जा सकती है। भगवान् ने कहा-'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई' (उत्तरज्झयणाणि, ३/१२)–धर्म उसी व्यक्ति में स्थिर होता है जिसका अन्तःकरण शुद्ध होता है, सरल होता है। जहां सरलता नहीं है, विशुद्धि नहीं है वहां धर्म का कभी स्थिरीकरण नहीं हो सकता। धर्म की साधना आत्मपरिष्कार की साधना है, आत्मा को निर्मल बनाने की प्रक्रिया है। विशुद्धीकरण और धर्म दोनों एक हैं। यह कभी हो नहीं सकता कि व्यक्ति धर्म करे और उसका अन्तःकरण परिमार्जित न हो। धर्म जीवन को रूपान्तरित करने की अमोघ औषधि है। जब मन अशान्त होता है तब व्यक्ति धर्म का आलम्बन लेता है। धर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है मानसिक संतुलन और समाधिस्थ जीवन। मनुष्य का व्यवहार एक प्रतिबिम्ब है। यदि जीवन में परिवर्तन आता है तो उसका प्रतिबिम्ब व्यवहार में भी झलकेगा। धर्म का साक्षात् लाभ है-चेतना का जागरण, शक्ति का जागरण और आनन्द की उपलब्धि। ___बाह्य जगत् में जीने वाला व्यक्ति उसी को मनोज्ञ और सुखद मानता है, जो तात्कालिक कामनाओं की पूर्ति करता है। वैषयिक सुख आपात-रमणीय होते हैं, किन्तु परिणाम-रमणीय नहीं होते। धर्म एक ऐसा तत्त्व है जो आपातरमणीय और परिणाम-रमणीय-दोनों है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति उसका आसेवन