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धर्म भावना
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क्षमासत्यसन्तोषदयादिक-सुभगसकलपरिवारः ।
देवासुरनरपूजितशासन-कृतबहुभवपरिहारः ॥५॥ जो क्षमा, सत्य, सन्तोष और दया आदि से सुन्दर समग्र परिवार वाला है, जिसका शासन देव, असुर और मनुष्य के द्वारा पूजित है और जो अनेक जन्म-मरण का परिहार करने वाला है, वह धर्म मेरी रक्षा करे।
बन्धुरबन्धुजनस्य दिवानिश-मसहायस्य सहायः।
भ्राम्यति भीमे भवगहनेऽङ्गी, त्वां बान्धवमपहाय॥६॥ हे धर्म! जिसका कोई बन्धु नहीं है उसका तू बन्धु है और तू दिन-रात असहायों की सहायता करता है। तुम जैसे बन्धु को छोड़कर यह प्राणी भयंकर संसार-अरण्य में भ्रमण कर रहा है।
द्रंगति गहनं जलति कृशानुः, स्थलति जलधिरचिरेण।
तव कृपयाऽखिलकामितसिद्धिर्बहुना किन्नु परेण॥७॥ तुम्हारे प्रभाव से जंगल नगर जैसा बन जाता है, अग्नि जल की तरह शीतल हो जाती है और समुद्र तत्काल स्थल हो जाता है। और अधिक क्या कहूं? तुम्हारी कृपा से सब कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं।
इह यच्छसि सुखमुदितदशाङ्गं, प्रेत्येन्द्रादिपदानि।
क्रमतो ज्ञानादीनि च वितरसि, निःश्रेयससुखदानि॥८॥ तू इस लोक में प्रकटभूत दस अंग वाला सुख देता है और परलोक में इन्द्र आदि का पद प्राप्त कराता है। तू क्रमशः मोक्ष सुख देने वाले ज्ञान, दर्शन और चारित्र को उपलब्ध कराता है।
सर्वतन्त्रनवनीत! सनातन! सिद्धिसदनसोपान!।
जय जय विनयवतां प्रतिलम्भितशान्तसुधारसपान!॥९॥ हे सर्वशास्त्रों के नवनीत! हे शाश्वत! हे सिद्धिगृह के सोपान! हे विनयशील लोकों को शान्तसुधारस का पान कराने वाले! तुम्हारी जय हो, तुम्हारी जय हो। १. सुख के दस अंग-१. आरोग्य, २. दीर्घ आयुष्य, ३. आढ्यता, ४. काम, ५. भोग, ६. सन्तोष, ७. अस्ति, ८. शुभभोग, ९. निष्क्रमण, १०. अनाबाध-(ठाणं १०/८३)।