________________
५६
शान्तसुधारस हम धर्मरूप कल्पवृक्ष की फल-निष्पत्ति का क्या वर्णन करें? विशाल राज्य, सौभाग्यशाली पत्नी, पुत्रों का आनन्द, सुन्दर रूप, सरस कविता बनाने का चातुर्य, मधुरस्वर, आरोग्य, गुणों की समृद्धि, सज्जनता और सुबुद्धि ये सब उसकी निष्पत्तियां हैं।
गीतिका १० : वसन्तरागेण गीयतेपालय पालय रे! पालय मां जिनधर्म!
मंगलकमलाकेलिनिकेतन! करुणाकेतन! धीर! शिवसुखसाधन! भवभयबाधन! जगदाधार! गभीर!॥१॥
हे मंगलमय लक्ष्मी के लिए क्रीड़ागृह! हे करुणा के प्रतीक! हे धीर! हे मोक्षसुख के साधन! हे संसार के भयों का निवारण करने वाले! हे जगत् के आधार और गम्भीर जिनधर्म! तू मेरी रक्षा कर, रक्षा कर, रक्षा कर।
सिञ्चति पयसा जलधरपटली, भूतलममृतमयेन।
'सूर्याचन्द्रमसावुदयेते, तव महिमातिशयेन॥२॥ तेरी अतिशय महिमा से मेघ की घटा अमृतमय जल से भूतल को अभिषिक्त करती है और सूर्य तथा चन्द्र उदित होते हैं।
निरालम्बमियमसदाधारा, तिष्ठति वसुधा येन।
तं विश्वस्थितिमूलस्तम्भं, संसेवे विनयेन॥३॥ जिससे यह आधारशून्य पृथ्वी निरालम्ब ठहरी हुई है, जो विश्वस्थिति का आधार-स्तम्भ है, मैं उस धर्म की विनय-पूर्वक सम्यक् आराधना करता
दानशीलशुभभावतपोमुख-चरितार्थीकृतलोकः।।
शरणस्मरणकृतामिह भविनां, दूरीकृतभयशोकः॥४॥ जिसने दान, शील, शुभभावना और तप आदि के द्वारा लोक को कृतार्थ किया है और शरण में आने वाले तथा स्मरण करने वाले भविजनों का भय
और शोक दूर किया है, वह धर्म मेरी रक्षा करे। १. 'देवतानामवायूनां वेदसहश्रुतानाम्' (भिक्षु. ३/२/४२) इति सूत्रेण पूर्वपदस्य आकारोन्तादेशः।