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संकेतिका
मनुष्य अस्वस्थ है, यह किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं ही इसका साक्षी है। उसके लक्षण ही उसकी रुग्णता को प्रकट कर रहे हैं। उसके चेहरे पर मानसिक आवेग उभर रहे हैं, इसलिए वह बीमार है। उसके सभी कार्यकलापों और व्यवहारों में वैषम्य झलक रहा है, अन्तःकरण में रागद्वेष की मलिन धारा बह रही है। मन, वचन और काया में वक्रता है, प्रवंचना है, फिर उसे स्वस्थ कैसे कहा जा सकता है? मनुष्य केवल शरीर और मन से ही रुग्ण नहीं होता, चेतना के स्तर पर भी रुग्ण होता है। यह चेतना न जाने कब से कितने-कितने कर्म - संस्कारों से आवृत है। प्रतिपल शुभ-अशुभ पुद्गल उस चेतना को अपनी मलिनता से आच्छन्न कर रहे हैं। वे कर्म - संस्कार और विजातीय तत्त्व जब बाहर प्रकट होते हैं तब मन और शरीर भी उनसे प्रभावित होता है। मनुष्य बाह्य उपचार के द्वारा उन रोगों का उपशमन कर देना चाहता है, किन्तु रोग के मूल तक नहीं पहुंच पाता। जब तक मूल का सिंचन होता रहेगा तब-तब वे अपना प्रभाव दिखाते रहेंगे।
अध्यात्म-चिकित्सकों ने उसे मिटाने के लिए निर्जरा के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अध्यात्मक्षेत्र में निर्जरा की प्रक्रिया कर्ममल विशोधन की प्रक्रिया है। यह विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने की प्रणाली है। जब तक ये मलिन पदार्थ आत्मा पर चिपके रहते हैं तब तक आत्मा अपने मूलस्वरूप में प्रभास्वर नहीं हो सकती। सुवर्ण तब तक अपनी आभा को प्रकट नहीं कर सकता जब तक उसकी प्रभा को आच्छादित करने वाले विजातीय तत्त्व उससे पृथक् नहीं हो जाते। सम्बन्ध बनाना एक बात है और सम्बन्धों को तोड़ना दूसरी बात है । निर्जरा सम्बन्धों को तोड़ने की विधि है। निर्जरा राग-द्वेषजनित कर्ममल के प्रक्षालन की प्रक्रिया है । भगवान् महावीर ने निर्जरा के बारह प्रकारों का विधान किया। ये बारह भेद बारह प्रकार की तपस्याओं के कारण विवक्षित हैं। वस्तुतः स्वतन्त्ररूप में निर्जरा एक ही प्रकार की है। अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप,