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नौवां प्रकाश
निर्जरा भावना
१. 'यनिर्जरा द्वादशधा निरुक्ता, तद् द्वादशानां तपसां विभेदात्।
हेतुप्रभेदादिह कार्यभेदः, स्वातन्त्र्यतस्त्वेकविधैव सा स्यात्।।
निर्जरा के बारह प्रकार बतलाए गए हैं। वे बारह प्रकार की तपस्याओं के कारण से बनते हैं। यह कारणभेद (तप) से कार्यभेद (निर्जरा) की विवक्षा है, किन्तु स्वतन्त्ररूप से वह निर्जरा एक ही प्रकार की होती है। २. 'काष्ठोपलादिरूपाणां निदानानां विभेदतः।
वह्निर्यथैकरूपोऽपि, पृथग्रूपो विवक्ष्यते।
अग्नि अपने स्वरूप में एक ही प्रकार की होती है, किन्तु उसे कारणभेद से भिन्न-भिन्न रूपों में विवक्षित किया जाता है। जैसे–काष्ठ से प्रज्वलित होने वाली अग्नि को काष्ठ की अग्नि, उपलों (चकमक नामक पत्थर) से प्रज्वलित होने वाली अग्नि को उपल की अग्नि, घास से प्रज्वलित होने वाली अग्नि को घास की अग्नि तथा छानों से प्रज्वलित होने वाली अग्नि को गोबर की अग्नि कहा जाता है। ३. निर्जराऽपि द्वादशधा, तपोभेदैस्तथोदिता।
कर्मनिर्जरणात्मा तु, सैकरूपैव वस्तुतः॥
उसी प्रकार तप के बारह भेद होने के कारण निर्जरा के भी बारह प्रकार बतलाए गए हैं। वास्तव में कर्म-निर्जरण स्वरूपवाली निर्जरा एकरूप वाली ही है।
१. इन्द्रवज्रा। २-३. अनुष्टुप्।