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संवर भावना
१. ' येन येन य इहाश्रवरोधः, सम्भवेन्नियतमौपयिकेन ।
आद्रियस्व विनयोद्यतचेतास्तत्तदान्तरदृशा परिभाव्य ।।
२.
आठवां प्रकाश
हे विनय! जिस-जिस उपाय से आस्रव का निरोध होना निश्चित संभव है उस उपाय को तू अन्तर्दृष्टि से जान, अपने चित्त को उसके लिए उद्यत बनाकर उसे स्वीकार कर ।
संयमेन विषयाऽविरतत्वे, दर्शनेन वितथाऽभिनिवेशम् । ध्यानमार्त्तमथ रौद्रमजस्रं, चेतसः स्थिरतया च निरुन्ध्याः । ।
तू इन्द्रिय-विषय और अविरति का निग्रह संयम के द्वारा, मिथ्याअभिनिवेश का निरोध सम्यक्त्व के द्वारा और आर्त्त - रौद्र ध्यान का निवारण चित्त की निरन्तर स्थिरता से कर ।
३. क्रोधं क्षान्त्या मार्दवेनाभिमानं, हन्या मायामार्जवेनोज्ज्वलेन ।
लोभं वारांराशिरौद्रं निरुन्ध्याः, सन्तोषेण प्रांशुना सेतुनेव ||
तू क्रोध को क्षमा से, अभिमान को मृदुता से, माया को निर्मल ऋजुता से जीत और समुद्र की भांति भयंकर लोभ का समुन्नत सेतु की तरह सन्तोष के द्वारा निरोध कर ।
४. गुप्तिभिस्तिसृभिरेवमजय्यान्', त्रीन् विजित्य तरसाऽधमयोगान् ।
साधु संवरपथे प्रयतेथा, लप्स्यसे हितमनीहितमिद्धम् ।।
१-२. स्वागता। ३. शालिनी । ४. स्वागता । ५. न जेतुं शक्यः - अजय्यः - यहां जि धातु को य प्रत्यय होने पर 'क्षय्यजय्यौ शक्तौ' (भिक्षु. ५/१/३४) इस सूत्र से अन्त में अय् आदेश होने पर 'जय्य' निपातन होता है। 'जय्यो यः शक्यते जेतुं जेयो जेतव्यमात्रके' (अभि. ३ / ४५७) । ६. पा. - हितमनाहतसिद्धम् ।