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शान्तसुधारस रहेगी तब तक समस्या नहीं मिटेगी। भगवान् महावीर ने साधना की दो पद्धतियां निरूपित की-संवर की साधना और निर्जरा की साधना। चित्तातीत का निर्माण संवर की साधना है। जब तक संवर की साधना नहीं होती तब तक निर्जरा की साधना नहीं हो सकती। भगवान् ने चित्तातीत साधना को प्रधानता दी। उन्होंने कहा-संवर करो, संवर करो। हमारे स्थूल शरीर में एक सूक्ष्म शरीर है। बाहर के तत्त्व भीतर आकर प्रतिपल उसे पुष्ट कर रहे हैं, उसकी शक्ति को बढ़ा रहे हैं। जब वह पुष्ट होता है तो सारी चंचलता पैदा होती है, इसलिए अस्तित्व तक पहुंचने के लिए सबसे पहले आवश्यक है प्रवृत्ति का निरोध, काया का संवर। काया का संवर होने पर मन का संवर अपने आप हो जाता है। दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। मन और वाणी भी काया के द्वारा ही प्रेरित है। काया का संवर होने पर वाणी और मन का संवर अपने आप सध जाता है। भगवान् से पूछा गया-संवर क्या है? भगवान् ने कहा-'आया संवरे, आया संयमे, आया पच्चक्खाणे' (भगवई १/४२६) आत्मदर्शन ही संवर है, आत्मदर्शन ही संयम है और आत्मदर्शन ही प्रत्याख्यान है।
इस संवर की अनुप्रेक्षा से मन, शरीर और वाणी की गुप्ति सध जाती है। उससे फलित होता है
० आध्यात्मिक पराक्रम का जागरण। ० चंचलता का निरोध।