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८. संकेतिका
आरोहण और अवरोहण के लिए कभी दो सोपानमार्ग नहीं होते। आनेजाने के लिए कभी दो द्वार नहीं होते। जिन सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा जा सकता है उन्हीं सीढ़ियों से नीचे उतरा जा सकता है। जिस द्वार से भीतर आया जा सकता है उसी द्वार से बाहर जाया जा सकता है। ऊपर अच्छा भी चढ़ सकता है और बुरा भी चढ़ सकता है। भीतर अच्छा भी आ सकता है और बुरा भी आ सकता है। समस्या द्वार और सीढ़ियों की नहीं, समस्या है भीतर आने की और सीढ़ियों पर चढ़ने की। जब तक मकान रहेगा तब तक द्वार भी रहेगा और सीढ़ियां भी रहेंगी। उन्हें मिटाया नहीं जा सकता। जब तक जीवन है तब तक यह आस्रव भी है। उसके अस्तित्व को मिटाया नहीं जा सकता। आस्रव एक समस्या है, अपाय है। प्रतिक्षण शुभ-अशुभ कर्मपुद्गल इस आस्रव-द्वार में प्रवेश कर रहे हैं और भीतर जाकर चेतना पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हैं। अपने आप में यह एक बहुत बड़ी समस्या है। चेतना के न चाहने पर भी वैसा सब कुछ घटित हो रहा
अध्यात्म के क्षेत्र में इस समस्या के निवारण के लिए खोज प्रारम्भ हुई। अध्यात्म के मनीषियों ने संवर का मार्ग प्रस्तुत किया। संवर एक मार्ग है समस्या के समाधान का और एक उपाय है अपाय को मिटाने का। जो आस्रव सतत प्रवहमान है उसको रोकना ही संवर है। जो कूड़ा-करकट जिस द्वार से भीतर आ रहा है उस द्वार को बन्द कर देना ही संवर है। भगवान् महावीर ने कहा-'जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा' (आयारो, ४/ १२)-'जो आस्रव हैं, वे परिस्रव हैं। जो परिस्रव हैं वे आस्रव हैं। जिनके द्वारा कर्म आते हैं, बन्धन आते हैं, उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है। जिनमें से मुक्ति आती है, उन्हीं में से बन्धन आता है। बन्धन और मुक्ति के द्वार दो नहीं हैं।
जब तक यह आयात होता रहेगा, बाहर से भीतर तक रसद पहुंचती