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अशौच भावना
आश्चर्य है, कपूर आदि सुवासित पदार्थों से अर्चित होने पर भी लहसुन सुगन्धित नहीं होता, दर्जन व्यक्ति जीवनभर उपकार किये जाने पर भी सुजनता का आलंबन नहीं लेता। उसी प्रकार मनुष्यों का यह शरीर भी स्वाभाविक अपवित्रता को नहीं छोड़ता। यह तैलमर्दित, वस्त्राभूषणों से विभूषित और बारबार खाद्य-पदार्थों से पुष्ट होने पर भी विश्वसनीय नहीं बनता। ४. 'यदीयसंसर्गमवाप्य सद्यो, भवेच्छुचीनामशुचित्वमुच्चैः।
अमेध्ययोनेर्वपुषोऽस्य शौचसंकल्पमोहोऽयमहो! महीयान्॥
जिस शरीर का संसर्ग पाकर पवित्र पदार्थ तत्काल अत्यधिक अपवित्र हो जाते हैं, उस अपवित्र स्रोत वाले इस शरीर के लिए पवित्र होने का संकल्प करना महान् मूढता है, महान् आश्चर्य है। ५. इत्यवेत्य शुचिवादमतथ्यं पथ्यमेव जगदेकपवित्रम्।
शोधनं सकलदोषमलानां, धर्ममेव हृदये निदधीथाः॥
'यह शरीर स्नान आदि से पवित्र होता है' इस शुचिवाद को तुम मिथ्या जानकर धर्म को ही अपने अन्तःकरण में धारण करो, जो पथ्य है, (मोक्षमार्ग के लिए हितकर है) जगत् में एकमात्र पवित्र और सभी दोषरूपी मलों का शोधन करने वाला है। गीतिका ६ : आशावरीरागेण गीयतेभावय रे! वपुरिदमतिमलिनं,
विनय! विबोधय मानसनलिनम्। पावनमनुचिन्तय विभुमेकं,
परममहोमय मुदितविवेकम्॥१॥ हे विनय! यह शरीर अतिमलिन है, इसका तू चिन्तन कर, अपने मानसरूपी कमल को विकस्वर कर और अपने घट में रहने वाले उस परमात्मा का ध्यान कर, जो पवित्र है, एकाकी है और परमज्योतिर्मय तथा जागृतविवेक वाला है।
दम्पतिरेतोरुधिरविवर्ते, किं शुभमिह मलकश्मलगर्ते।
भृशमपि पिहितं स्रवति विरूपं, को बहुमनुतेऽवस्करकूपम्॥२॥ १. उपेन्द्रवज्रा। २. स्वागता। ३. 'भा मयूखमहसी...' (अभि. २/१४)।