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७. संकेतिका
'किसने कहा मन चंचल है' इसका उत्तर उन मनीषियों ने दिया, जिन्होंने मन से भी आगे देखा है। मनुष्य चंचलता के चौराहे पर खड़ा है। भीतर से एक स्रोत आ रहा है, जो शरीर, मन, इन्द्रिय और वचन सबको प्रभावित कर रहा है। मन के अचंचल होने पर भी इसी को ही दोषी बताया जा रहा है। मनुष्य हमेशा स्थूल को ही पकड़ता है, सूक्ष्म तक नहीं पहुंच पाता। जहां चंचलता है वहां दुःख है। मनुष्य दुःख को भोगता है, अनुभव करता है, पर वह मानता ही नहीं कि दुःख भी कोई तत्त्व है। चंचलता के साम्राज्य में दुःख भी छिप जाता है, ज्ञान भी छिप जाता है और शक्ति का बोध भी छिप जाता है। उसे अपने अस्तित्व का भी पता नहीं चलता। कभी-कभी चंचलता की तरंगें और ऊर्मियां इतनी उठती हैं कि त्रैकालिक सत्य भी तिरोहित हो जाता है।
सत्यद्रष्टाओं ने चंचलता के स्रोत को खोजा। उसे जैनदर्शन में आस्रव कहा गया। हजारों वर्ष पूर्व कर्मशास्त्र ने प्रतिपादन किया था कि मनुष्य जो कुछ करता है उसके पीछे कर्म की प्रेरणा होती है। हमारे स्थूल शरीर में एक अतिसूक्ष्म कर्मशरीर है, जो समस्त तंत्र को संचालित कर रहा है। वही आत्मा और पुद्गल के साथ सम्बन्ध बना रहा है। उसे चिन्ता है कि उसका अपना अस्तित्व सुरक्षित रहे। उसे इष्ट ही नहीं है कि यह आत्मा उससे मुक्त हो जाए। जो उसके चंगुल में फंस जाता है वह उसे अपने अधीन रखना चाहता है। शरीर चेतन को अपनी अधीनता में रखना चाहता है। जो तत्त्व कर्म की परिधि में आ गए, पुद्गल की सीमा में आ गये और वह उसे छोड़ दे, कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कर्मशरीर ने उन सबको अपने भीतर बनाए रखने की चंचलता का जाल बिछाया है। जो कर्म संचित हैं, जो कर्म अस्तित्व में हैं, सत्ता में हैं और जब वे उदय में आते हैं, जब उनका विपाक होता है तब विविध घटनाएं घटित होती हैं। सारा का सारा व्यक्तित्व उस कर्म-विपाक से प्रभावित हो जाता है। हमारे सभी आचरणों का मूल स्रोत है-यह कर्मशरीर। यही सारी