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७. संकेतिका मानसिक चंचलता उत्पन्न कर रहा है, फिर मन का दोष कहां? प्रतिपल असंख्यअसंख्य कर्मपरमाणु राग-द्वेष की मलिन धारा से आकर्षित हो रहे हैं। कर्मपरमाणु काययोग से आकृष्ट होकर जीवप्रदेशों के साथ अपना संबंध स्थापित कर रहे हैं। ये दोनों प्रकार की आस्रव-क्रियाएं निरन्तर अपना कार्य कर रही हैं। मुख्यरूप से आस्रव के पांच भेद हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये पांचों ही द्वार कर्म-प्रविष्टि का हेतु बनते हैं। कभी मनुष्य विपरीत चिन्तन के कारण सम्यक् नहीं सोचता, कभी उसकी पदार्थ के प्रति अत्यधिक आकांक्षा होती है, वह उससे विलग नहीं होना चाहता। कभी धर्म के प्रति अनुत्साह, कभी कषायों का उत्ताप तो कभी मानसिक, वाचिक और कायिक चंचलता होती है।
प्रत्येक जीव अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख और शक्ति का स्रोत है, किन्तु आवरण के कारण वह अनन्त चतुष्टयी प्रकट नहीं हो पाती। जीव में जो आवरण है, वह स्वाभाविक नहीं, आस्रव-जनित है। भगवान् महावीर ने कहा
'उद्धं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया। एते सोया वियक्खाया, जेहिं संगति पासहा॥'
(आयारो, ५/११८) -'ऊपर स्रोत हैं, नीचे स्रोत हैं, मध्य में स्रोत हैं। ये स्रोत कहे गए हैं। इनके द्वारा मनुष्य आसक्त होता है। इसे तुम देखो।'
इस प्रकार आस्रव की अनुप्रेक्षा करने वाला मनुष्य सुख-दुःख-जनित हेतुओं को जान लेता है। उसे जान लेने पर पुरुषार्थ का दीपक प्रज्वलित होता है और उससे आलोकित होता है साधना का मार्ग, जिसका फलित है
० मुमुक्षाभाव। ० अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति का अनावरण। ० सुषुप्त शक्तियों का जागरण।
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