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शान्तसुधारस पति-पत्नी के वीर्य और रज से निर्मित तथा मैल से मलिन बने हुए इस शरीररूपी गर्त में शुभ क्या है? जो (चमड़ी आदि से) अत्यन्त आच्छादित होने पर भी विरूप (मलमूत्र आदि) पदार्थों का स्रवण कर रहा है। अवस्कर (मलमूत्र) के कुएं को कौन बहुमान दे सकता है?
भजति सचन्द्र शुचिताम्बूलं, कर्तुं मुखमारुतमनुकूलम्। तिष्ठति सुरभि कियन्तं कालं, मुखमसुगन्धि जुगुप्सितलालम्॥३॥
व्यक्ति मुख को सुवासित करने के लिए कपूरयुक्त बढ़िया पान चबाता है, किन्तु जो मुख असुगन्धित हो और जिसमें जुगुप्सित लार टपक रही हो, उसमें वह सुगन्ध कितने समय तक टिक पाती है? .
असुरभिगन्धवहो'ऽन्तरचारी, आवरितुं शक्यो न विकारी। वपुरुपजिघ्रसि वारं वारं, हसति बुधस्तव शौचाचारम्॥४॥
इस शरीर के भीतर चलने वाली विकारपूर्ण और असुगन्धित वायु को रोका नहीं जा सकता, फिर भी तू बार-बार इस शरीर को सुरभित करता है। तेरे इस शुचि बनाने वाले आचरण पर समझदार लोग हंसते हैं।
द्वादशनवरन्ध्राणि निकामं, गलदऽशुचीनि न यान्ति विरामम्। यत्र वपुषि तत्कलयसि पूतं, मन्ये तव नूतनमाकूतम्॥५॥
जिस शरीर में (स्त्री के शरीर में) बारह और (पुरुष के शरीर में) नौ छिद्र अत्यधिक अशुचि का क्षरण कर रहे हैं, जो कभी विराम नहीं लेते, उसको तू पवित्र बना रहा है। यह तेरा नया ही चिन्तन है, ऐसा मैं मानता हूं।
अशितमुपस्करसंस्कृतमन्नं जगति जुगुप्सां जनयति हन्नम्। पुंसवनं धैनवमपि लीढं, भवति विगर्हितमति जनमीढम्॥६॥
वेषवार से सुसंस्कृत खाया हुआ अन्न मल होकर संसार में जुगुप्सा उत्पन्न करता है और पीया हुआ गाय का दूध भी अत्यन्त घृणित मूत्र बन जाता है।
केवलमलमयपुद्गलनिचये, अशुचीकृतशुचिभोजनसिचये।
वपुषि विचिन्तय परमिह सारं, शिवसाधनसामर्थ्यमुदारम्॥७॥ १. 'घनसारः सिताभ्रश्च चन्द्रः'-(अभि. ३/३०७)। २. गन्धवह इति पवनः।