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६.संकेतिका भीतर उस सामर्थ्य को खोजने का भी प्रयत्न किया। अब तक उसका सारा ध्यान शरीर के बाह्य भाग तक ही सीमित रहा। बार-बार इस शरीर को स्नान कराना, सुगन्धित द्रव्यों और वस्त्राभूषणों से अलंकृत बनाना ही उसका लक्ष्य रहा है। भगवान महावीर ने शरीर की यथार्थता को प्रकट करते हुए कहा
'सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो'।
__ (उत्तरज्झयणाणि, २३/७३) –'शरीर एक नौका है, जीव नाविक है और संसार महासमुद्र है। महान् मोक्ष की एषणा करने वाला मनुष्य ही इस शरीररूपी नौका के द्वारा महासमुद्र को तर सकता है।'
शरीर को नौका मानने का यह दृष्टिकोण उसके सारभूत तत्त्व को प्रकट करने का दृष्टि-बिन्द है।
शरीर की अशुचिता का चिन्तन भी यथार्थ की ओर ले जाता है। उस अशौच अनुप्रेक्षा की निष्पत्तियां हैं
० वैराग्य का प्रादुर्भाव। ० ममकार और आसक्तियों का विलीनीकरण। • ज्ञात से अज्ञात की ओर प्रस्थान। ० अपनी शक्तियों से साक्षात्कार।