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६. संकेतिका
वैराग्य से ओत-प्रोत कुछेक आचार्यों ने शरीर को व्याधि-मन्दिर मानकर उसकी उपेक्षा की तो कुछेक परमार्थदर्शी आचार्यों ने इसे सारभूत मानकर धर्मसाधन के रूप में स्वीकार किया। दोनों ही दृष्टिकोण अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। जब मनुष्य इस अशुचिमय शरीर में झरते हुए विविध स्रोतों को देखता है तब सहसा मन में घृणा का भाव उभर आता है। इस शरीर के भीतर है ही क्या? यह कोरा मांस, रक्त, हड्डी, वसा और मज्जा का ही तो ढांचा है, जो निरन्तर छिद्रयुक्त मदिरा के घट की भांति रिस रहा है। इसके अपवित्र रूप को देखकर सहज ही वैराग्य का स्रोत फूट पड़ता है। चिन्तन का यह एक कोण हो सकता है, किन्तु इसे समग्र सत्य नहीं कहा जा सकता।
शरीर को देखने का दूसरा दृष्टिकोण भी है कि यह कितना सारभूत है। जिन सात धातुओं से यह शरीर बना है, वे सभी नश्वर हैं। उस नश्वर शरीर में सारभूत तत्त्व की बातें करना अपने आपमें उपहास का कारण भले ही हो, किन्तु वह भी एक सचाई है। जब तक व्यक्ति अपने आपसे परिचित नहीं होता तब तक वह उसे निस्सार और व्यर्थ ही मानता है। न जाने यह शरीर कितने रहस्यों का कोश है? इसके भीतर कितने सारभूत तत्त्व विद्यमान हैं! कितने साइकिक सेन्टर, कितने चैतन्य केन्द्र, कितनी ग्रन्थियां और कितने रसायन इसके भीतर अपना काम कर रहे हैं! यदि उन्हें जागृत कर लिया जाए तो सारा शरीर ही अतीन्द्रिय ज्ञान का 'करण' बन सकता है। शरीर ही एक ऐसा माध्यम है जो आत्मा से परमात्मा तक और इन्द्रियज्ञान से अतीन्द्रियज्ञान तक पहुंचा सकता है।
आज के शरीरशास्त्री मानते हैं कि मनुष्य के शरीर में एक महत्त्वपूर्ण अवयव है - पृष्ठरज्जु (स्पाइनल कॉड), जो सभी प्राणियों में नहीं मिलता। यही एकमात्र सारी शक्तियों का भण्डार है। मनुष्य ने अभी तक अपने अज्ञान और मूर्च्छा के कारण उन शक्तियों का मूल्यांकन नहीं किया और न ही कभी अपने