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५. संकेतिका
'मैं कौन हूं' - यह प्रश्न सदा से पूछा जाता रहा है और आज भी पूछा जा रहा है। जिसने यत्किंचित् अपने भीतर देखने का प्रयत्न किया, वह सचाई को उपलब्ध हो गया और उसने आत्मा को पा लिया। जिसने ऐसा प्रयत्न नहीं किया उसके लिए यह प्रश्नचिह्न सदा बना रहा। मनुष्य का जब से अभेदात्मक दृष्टिकोण रहा, उसने सजातीय - विजातीय, अपना-पराया, भला-बुरा आदि का विचार किए बिना ही सबको एक तराजू में तोला और सबको संग्रह नय की कसौटी पर ही कसा। अतः उसे जो प्राप्त होना चाहिए था वह प्राप्त नहीं हो सका। जब मनुष्य ने भेदात्मक दृष्टिकोण से पदार्थ की मीमांसा की, व्यवहार नय के आधार पर उसका विश्लेषण किया, उसे अपना स्वरूप उपलब्ध हो गया।
प्रत्येक पदार्थ अभेद और भेद की समष्टि है, इसलिए अभेद भी सत्य है और भेद भी सत्य है। द्रव्य भी सत्य है, पर्याय भी सत्य है। सत्य के दोनों रूप हमारे सामने हैं। अभेद से भेद और भेद से अभेद सर्वथा भिन्न नहीं हो सकता । दोनों वस्तुसापेक्ष हैं। अभेदोन्मुखी दृष्टि द्रव्य को स्वीकार करती है तो भेदोन्मुखी दृष्टि पर्याय को स्वीकार करती है।
'स्व' का स्वीकार तभी हो सकता है जब 'पर' को अस्वीकार किया जा सके। 'पर' को अस्वीकार करने का अर्थ है ममकार की ग्रन्थि का उच्छेद करना। आत्मा को उपलब्ध करने का उपाय है तोड़ते जाओ, भेद करते जाओ, अस्वीकार करते जाओ। शेष जो बचेगा वह वास्तविक होगा, परमार्थ होगा, परम सत्य होगा। कायोत्सर्ग भेद - विज्ञान की साधना है, ममकार को छोड़ने की प्रक्रिया है। जब तक देहासक्ति को नहीं छोड़ा जाता तब तक कायोत्सर्ग नहीं सधता । शरीर और आत्मा में भेदानुभूति के लिए आवश्यक है भेद - विज्ञान को समझना। 'आत्मान्यः पुद् गलश्चान्यः ' -- यह अन्यत्व अनुप्रेक्षा का एक महत्त्वपूर्ण आलम्बन है। आत्मा अन्य है, शरीर अन्य है। पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं। कामभोग मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं। इस प्रकार अभेद में