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चौथा प्रकाश
एकत्व भावना
१. 'एक एव भगवानयमात्मा, ज्ञानदर्शनतरङ्गसरंगः।
सर्वमन्यदुपकल्पितमेतद्, व्याकुलीकरणमेव ममत्वम्॥ ___ ज्ञान-दर्शन की तरंगों से तरंगित यह भगवान् आत्मा अकेली ही है। शेष सब पदार्थ उपकल्पित हैं-सम्बन्ध स्थापित किए हुए हैं। उनके प्रति होने वाला यह ममत्वभाव ही व्याकुलता उत्पन्न कर रहा है। २. अबुधैः परभावलालसा-लसदऽज्ञानदशावशात्मभिः।
परवस्तुषु हा! स्वकीयता, विषयाऽऽवेशवशाद् विकल्प्यते॥
जिन व्यक्तियों की आत्मा परपदार्थ की लालसा से होने वाली अज्ञानदशा के अधीन है, ऐसे अज्ञानी व्यक्ति विषयों के आवेश के वशवर्ती होकर आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ को अपना मानते हैं, यह खेद है। ३. कृतिनां दयितेति चिन्तनं, परदारेषु यथा विपत्तये।
विविधार्तिभयावहं तथा, परभावेषु ममत्वभावनम्।
जिस प्रकार परस्त्री के विषय में 'यह मेरी पत्नी है', ऐसा चिन्तन करना विज्ञजनों के लिए विपत्तिकारक होता है, उसी प्रकार परपदार्थों के प्रति ममत्वभाव-अपनेपन का अनुभव करना नाना प्रकार की पीड़ाओं और भयों को उत्पन्न करने वाला होता है। ४. अधुना परभावसंवृति, हर चेतःपरितोऽवगुण्ठिताम्।
क्षणमात्मविचारचन्दन-द्रुमवातोर्मिरसाः स्पृशन्तु माम्॥ हे आत्मन्! चित्त पर चारों ओर से परदा डालने वाले परभाव के
run हा
१. स्वागता। २-३-४. वैतालीय।