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शान्तसुधारस
हे मूढ पुरुष! इस संसार में स्वजन, पुत्र आदि का परिचय-सूत्र (रस्सी) व्यर्थ ही तुझे बांधे हुए है। पग-पग पर नये-नये तिरस्कारों का अनुभव बार-बार तुझे पकड़े हुए है।
घटयसि क्वचन मदमुन्नतेः, क्वचिदहो! हीनतादीन रे!। प्रतिभवं रूपमपराऽपरं, वहसि बत! कर्मणाऽधीन रे!॥३॥
आश्चर्य है कि किसी क्षण तुम बड़प्पन का अहंकार करते हो और किसी क्षण हीनता से दीन बन जाते हो। तुम कर्मों के अधीन बने हुए हो, इसलिए जन्म-जन्मान्तर में भिन्न-भिन्न रूपों का निर्माण करते हो।
जातु शैशवदशापरवशो, जातु तारुण्यमदमत्त रे!।
जातु दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकराऽऽयत्त रे!॥४॥
कभी तुम शैशव अवस्था के अधीन हो जाते हो और कभी तारुण्य के गर्व से गर्वित। कभी तुम दर्जय जरा से जर्जरित हो जाते हो और कभी यमराज के हाथों तले परतन्त्र।
व्रजति तनयोऽपि ननु जनकतां, तनयतां व्रजति पुनरेष रे! भावयन् विकृतिमिति भवगतेस्त्यजतमां नृभवशुभशेष रे!॥५॥
पूर्वजन्म का पुत्र भी पिता बन जाता है और पुनः वही अगले जन्म में उसका पुत्र बन जाता है। तू इस जन्म-चक्र में होने वाले विविध परिवर्तनों का पर्यालोचन कर और उसके कारणों को छोड़। अभी भी तुम्हारे पास मनुष्य-जन्म के पुण्य बचे हुए हैं।
यत्र दुःखार्तिगददवलवैरनुदिनं दह्यसे जीव रे!। हन्त! तत्रैव रज्यसि चिरं, मोहमदिरामदक्षीब रे!॥६॥
हे जीव! जिस संसार में शारीरिक और मानसिक कष्ट तथा रोगरूपी दावानल की चिनगारियों से तू प्रतिदिन जल रहा है, आश्चर्य है कि मोहरूपी मदिरा के नशे से उन्मत्त बना हुआ तू उसी संसार में चिरकाल तक अनुरक्त हो
रहा है।
दर्शयन् किमपि सुखवैभवं, संहरंस्तदथ सहसैव रे!। विप्रलम्भयति शिशुमिव जनं, कालबटुकोऽयमत्रैव रे!॥७॥