________________
तीसरा प्रकाश
संसार भावना
१. 'इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरंतो दव इवो
__ल्लसल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम्। इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला,
कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने? एक ओर अन्तहीन लोभ क्षुब्धता उत्पन्न कर रहा है। जैसे दावानल को बुझाना शक्य नहीं होता वैसे ही बढ़ते हुए लाभरूपी जल से लोभ को किसी भी प्रकार उपशांत नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर इन्द्रिय-तृष्णा चित्त को व्यथित कर रही है, जो मृग-मरीचिका की भांति विफल या अर्थशून्य है। ऐसे अनेक प्रकार के भयों से भयानक संसार-अरण्य में किस प्रकार प्राणी स्वस्थ रह सकता है? २. 'गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका,
मनोवाक्कायेहाविकृतिरतिरोषात्तरजसः। विपद्गर्ताऽऽवर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं,
न जन्तोः संसारे भवति कथमप्यतिविरतिः॥ व्यक्ति की एक चिन्ता पूरी होती है और पुनः उससे बड़ी अन्य चिन्ता उसके सामने उपस्थित हो जाती है। वह मानसिक-वाचिक-कायिक चेष्टा के विकार से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष के कारण कर्मरजों का उपचय करता है और पग-पग पर एक के बाद एक दूसरे विपत्तिगर्त के आवर्त में तुरन्त गिर जाता है। अतः उस व्यक्ति का इस संसार में दःख से छुटकारा किसी भी प्रकार नहीं होता।
१-२. शिखरिणी।