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३. संकेतिका
अध्यात्म के मनीषियों ने इस संसार को दो रूपों में चित्रित किया है। उसका पहला रूप है-नाट्यशाला। संसार में आने का अर्थ है-इस नाट्यशाला में आना, अपना अभिनय प्रस्तुत करना और पुनः लौट जाना। भांति-भांति के अभिनय और भांति-भांति के अभिनेता। जितने अभिनय उतने अभिनेता। न अभिनयों की समानता और न ही अभिनेताओं की समानता। सभी अपनेअपने कर्मतन्तुओं से प्रेरित होकर अपना-अपना अभिनय प्रस्तुत कर रहे हैं। उन सबको संचालित करने वाला सूत्रधार है-यह कर्म। बड़ा विचित्र और बड़ा ही दक्ष। वह प्राणीमात्र को संसार के इस रंगमंच पर कठपुतली की भांति नचा रहा है। उसी के वशवर्ती होकर कभी यह मनुष्य बड़प्पन का अहंकार करता है तो कभी हीनता से दीन बन जाता है। कभी मोहरूपी मदिरा की प्याली पीकर नशे में झूम उठता है तो कभी शान्तरस का पान कर प्रीतिरस में डूब जाता है। कभी पूर्वजन्म का पुत्र पिता बन जाता है तो कभी पूर्वजन्म का पिता उसका पुत्र बन जाता है। कहीं स्वार्थ की टकराहट है तो कहीं धन की अभीप्सा। कहीं प्रलोभन है तो कहीं आंखमिचौनी। पर्यवेक्षक भी स्वयं अभिनेता और अभिनय करने वाला भी स्वयं पर्यवेक्षक। इतनी विविधताओं और इतनी विचित्रताओं में सिमटा हुआ यह संसार अपने आपमें कितना आश्चर्यकारी बना हुआ है?
संसार का दूसरा रूप है-महा-अरण्य। बड़ा भयानक, सघन तथा भटकाव उत्पन्न करने वाला। उसमें आने वाला व्यक्ति जन्म और मृत्यु से परिभ्रान्त होता है, जरा और शोक से संतप्त होता है, इन्द्रियतृष्णा तथा लोभ से ग्रसित होता है तथा मानसिक-वाचिक-कायिक चिन्ताओं से चिंतित होकर पग-पग पर विपदाओं को झेलता है। उसमें कहीं सुख का लवलेश नहीं है, फिर भी मनुष्य अपनी मूढ़ता के कारण उसमें चारों ओर सुख खोजने का प्रयत्न कर रहा है। भगवान् महावीर ने संसार-मुक्ति के लिए कहा