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अशरण भावना
विद्यामन्त्रमहौषधिसेवां, सृजतु वशीकृतदेवाम्। रसतु रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुञ्चति मरणम्॥४॥
भले कोई देवता को वश में करने वाली विद्या, मंत्र और महान् औषधि का सेवन करे, भले कोई शरीर को पुष्ट बनाने वाले रसायनों का प्रयोग करे, फिर भी मौत उसे नहीं छोड़ती।
वपुषि चिरं निरुणद्धि समीरं, पतति जलधिपरतीरम्। शिरसि गिरेरधिरोहति तरसा, तदपि स जीर्यति जरसा॥५॥
भले कोई लम्बे समय तक अपने शरीर में श्वास रोक ले, भले कोई समुद्र के उस पार चला जाए और भले कोई त्वरा के साथ पर्वत के शिखर पर चढ़ जाए, फिर भी बुढ़ापे से वह जीर्ण हो जाता है।
सुजतीमसितशिरोरुहललितं, मनुजशिरो वलिपलितम्।
को विदधानां भूघनमरसं, प्रभवति रोर्बु जरसम्॥६॥ काले-काले बालों से सुन्दर मनुष्य के सिर को यह बुढ़ापा झुर्रियों तथा सफेदी से भर देता है। ऐसा कौन व्यक्ति शक्तिशाली है, जो शरीर को विरस बनाते हुए बुढ़ापे को रोक सके?
उद्यत उग्ररुजा जनकायः, कः स्यात्तत्र सहायः। एकोऽनुभवति विधुरुपरागं', विभजति कोऽपि न भागम्॥७॥
मनुष्य का शरीर जब प्रचंड रोग से ग्रस्त होता है तब उसके निवारण में कौन व्यक्ति सहायक बनता है? चन्द्र-ग्रहण के समय चन्द्रमा अकेला ही राहग्रास का अनुभव करता है, कोई भी उसमें भागीदार नहीं बनता।
शरणमेकमनुसर चतुरङ्गं, परिहर ममतासङ्गम्। विनय! रचय शिवसौख्यनिधानं, शान्तसुधारसपानम्॥८॥
हे विनय! तू चतुरंग–अर्हत, सिद्ध, साधु तथा केवली द्वारा प्रणीत धर्म की शरण स्वीकार कर, ममता के संग को छोड़ और मोक्ष-सुख के लिए निधिरूप शान्तसुधारस का पान कर।
१. 'राहुग्रासोऽर्केन्द्वोर्ग्रह उपराग उपप्लवः' (अभि. २/३९)।