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संसार भावना
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३. 'सहित्वा सन्तापानशुचिजननीकुक्षिकुहरे,
ततो जन्म प्राप्य प्रचुरतरकष्टक्रमहतः। सुखाऽऽभासैर्यावत् स्पृशति कथमप्यर्तिविरतिं,
जरा तावत् कायं कवलयति मृत्योः सहचरी।। मनुष्य माता के अपवित्र गर्भावास में अनेक कष्टों को सहकर जन्म लेता है। उसके पश्चात् प्रचुर कष्टों की परम्परा से प्रताड़ित होता हुआ जब वह पौद्गलिक सुखानुभूति से किसी प्रकार दःखनिवृत्ति के बिन्द को छूता है तब मृत्यु-सखा बुढ़ापा शरीर को कवलित कर लेता है-घेर लेता है। ४. विभ्रान्तचित्तो बत! बम्भ्रमीति, पक्षीव रुद्धस्तनुपञ्जरेऽङ्गी।
नुन्नो नियत्याऽतनुकर्मतन्तुसन्दानितः सन्निहितान्तकौतुः॥
सघनकर्मतंतुओं से प्रतिबद्ध और नियति से प्रेरित होकर यह प्राणी शरीररूपी पिंजरे में बंधा हआ है। उसके समीप यमराजरूपी बिडाल खड़ा है। उसके भय से आकुल-व्याकुल बना हुआ वह उस पिंजरे में उसी प्रकार चक्कर काट रहा है जिस प्रकार बंदी बना हुआ पक्षी चक्कर काटता है। ५. अनन्तान् पुद्गलावर्तानऽनन्ताऽनन्तरूपभृत्।
अनन्तशो भ्रमत्येव, जीवोऽनादिभवार्णवे।। __ अनन्त-अनन्त रूपों को धारण करने वाला जीव इस अनादि संसारसमुद्र में अनन्त पुद्गलपरावर्तन (अनन्तकाल) तक अनन्त बार जन्म-मरण करता रहता है। गीतिका ३ : केदाररागेण गीयते
कलय संसारमतिदारुणं, जन्ममरणादिभयभीत रे!।
मोहरिपुणेह सगलग्रहं, प्रतिपदं विपदमुपनीत रे!॥१॥ हे पुरुष! तू इस संसार में जन्म-मरण आदि के भय से भीत बना हुआ है। मोहरूपी शत्रु तेरा गला पकड़कर तुझे पग-पग पर विपदा की ओर ढकेल रहा है। अतः तू अनुभव कर कि यह संसार अत्यन्त भयानक है।
स्वजनतनयादिपरिचयगुणैरिह मुधा बध्यसे मूढ रे!॥
प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः, परिभवैरसकृदुपगूढ रे!॥२॥ १. शिखरिणी। २. इन्द्रवज्रा। ३. अनुष्टुप्।