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अनित्य भावना
१. 'नीरन्ध्रे भवकानने परिमलत्पञ्चाऽऽश्रवाम्भोधरे,
नानाकर्मलतावितानगहने मोहान्धकारोधुरे ।
भ्रान्तानामिह देहिनां स्थिरकृते कारुण्यपुण्यात्मभि
पहला प्रकाश
स्तीर्थेशैः प्रथिताः सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥
जिसमें चारों ओर पांच आस्रवरूपी मेघ बरस रहे हैं, जो विविध कर्मरूपी लताओं के विस्तार ( आच्छादन) से गहन और मोहमय अन्धकार से परिव्याप्त है, ऐसे सघन संसार - अरण्य में भूले-भटके प्राणियों को सही मार्ग पर लाने के लिए करुणा से पवित्र आत्मा वाले तीर्थंकरों द्वारा कही हुई अमृतरस बरसाने वाली रम्य वाणी तुम्हारी रक्षा करे ।
२. स्फुरति चेतसि भावनया विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमप्यमुना विना, जगति मोहविषादविषाऽऽकुले ।।
भावना के बिना विद्वानों के भी चित्त में शान्तसुधारस स्फुरित नहीं हो पाता। उसके अभाव में मोह और विषाद के विष से आकुल जगत् में स्वल्पमात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता ।
३. "यदि भवभ्रमखेदपराङ्मुखं, यदि च चित्तमनन्तसुखोन्मुखम् ।
शृणुत तत्सुधियः ! शुभभावनाभृतरसं मम शान्तसुधारसम् ॥
हे सुधीजनो ! यदि तुम्हारा चित्त संसार भ्रमण के दुःख से विमुख और अनन्त सुख–मोक्ष के सम्मुख है तो तुम मेरे उस 'शान्तसुधारस' काव्य को सुनो, शुभ भावना के रस से भरा हुआ है।
१. शार्दूलविक्रीडित । २. हितकृते इति पाठान्तरम् । ३, ४. द्रुतविलम्बित ।