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शान्तसुधारस
हे मूढ पुरुष! तू व्यर्थ ही अपने मन में परिवार और ऐश्वर्य का अनुचिन्तन कर मोह में उलझ रहा है। हे विनय! तू इस जीवन को उसी प्रकार असार (अस्थिर) जान, जिस प्रकार कुश के अग्रभाग पर टिका हुआ जल-बिन्दु वायु द्वारा प्रकम्पित होने पर असार (अस्थिर) होता है। पश्य भङ्गुरमिदं विषयसुखसौहृदं,
पश्यतामेव नश्यति सहासम्। एतदऽनुहरति संसाररूपं रया
ज्ज्वलज्जलवालिकारुचिविलासम्॥२॥ हे आत्मन्! तू वैषयिक सुखों की क्षणभंगुर सहचरता को देख, जो देखतेदेखते ही हास्य के साथ नष्ट होने वाली है। विषयसुख का यह साहचर्य संसार के उस स्वरूप का अनुगमन करता है, जो तीव्रता से चमकने वाली विद्युत्प्रकाश के विलास जैसा है। हन्त! हतयौवनं पुच्छमिव शौवनं,
कुटिलमति तदपि लघु दृष्टनष्टम्। तेन बत! परवशाः परवशाहतधियः,२
कटुकमिह किन्न कलयन्ति कष्टम्॥३॥ आश्चर्य है कि अर्थहीन यौवन कुत्ते की पूंछ की भांति बहत कुटिल है। वह भी शीघ्र देखते-देखते नष्ट होने वाला है। खेद है, परस्त्रियों से अभिभूत मति वाले लोग उस यौवन के अधीन होकर किन-किन कड़वे कष्टों को नहीं झेलते?
यदपि पिण्याकतामङ्गमिदमुपगतं,
__ भुवनदुर्जयजरापीतसारम्। तदपि गतलज्जमुज्झति मनो नाङ्गिनां,
वितथमति कुथितमन्मथविकारम्॥४॥
१. शौवनं-शुनः इदम्। २. पराभिः-अन्याभिः, वशाभिः-स्त्रीभिः-'वशा सीमन्तिनी वामा' (अभि. ३/१६८) हता धीर्येषां, ते....। ३. 'पिण्याकखलौ समौ' (अभि. ३/ ५८१)। ४. वितथं और अतिकुथित....इस प्रकार मानने पर इसका अर्थ होगा-अयथार्थ और अतिकुत्सित कामवासना।