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अनित्य भावना
९. 'वपुरवपुरिदं 'विदभ्रलीलापरिचितमप्यतिभङ्गरं नराणाम्।
तदतिभिदुरयौवनाऽविनीतं, भवति कथं विदुषां महोदयाय?
मनुष्यों का यह शरीर ऐसा है कि मानो उसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है। अत्यधिक लीलाओं से परिचित (पालित-पोषित) होने पर भी वह क्षणभंगुर है। वह कुछ समय में नष्ट हो जाने वाले यौवन से उच्छृखल है। ऐसा शरीर विद्वानों के महान् विकास के लिए कैसे हो सकता है? १०. आयुर्वायुतरत्तरङ्गतरलं लग्नापदः सम्पदः,
सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाः सन्ध्याभ्ररागादिवत्। मित्रस्त्रीस्वजनादिसङ्गमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपमं,
___ तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम्?
मनुष्य का जीवन वायु से उठती हुई ऊर्मियों की भांति चंचल है, सम्पदाएं विपत्तियों से ग्रस्त हैं, इन्द्रियों के सभी विषय संध्या के आकाश के रंगों की भांति चलायमान हैं, मित्र, स्त्री तथा स्वजनों के संयोग से मिलने वाला सुख स्वप्न और इन्द्रजाल की तरह क्षणिक है। इस संसार में ऐसी कौनसी वस्तु है जो समझदार मनुष्यों के लिए प्रमोद का आलम्बन बन सके? ११. 'प्रातर्धातरिहावदातरुचयो ये चेतनाऽचेतनाः,
दृष्टा विश्वमनोविनोदविदुरा भावाः स्वतः सुन्दराः। तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसान् हा! नश्यतः पश्यत
श्चेतः प्रेतहतं जहाति न भवप्रेमानुबन्धं मम।। हे भाई! उज्ज्वलकांति वाले, सबके मन को बहलाने में कुशल तथा सहज सुन्दर जिन जड़-चेतन पदार्थों को मैंने प्रातःकाल देखा था, खेद है, वे सभी पदार्थ मेरे देखते-देखते उसी दिन परिणाम-विरस और नष्ट हो गए। फिर भी मेरा प्रेतग्रस्त मन संसार के स्नेह-बंधन को नहीं छोड़ रहा है। गीतिका १ : रामगिरिरागेण गीयतेमूढ! मुह्यसि मुधा मूढ! मुह्यसि मुधा,
विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम्। कुशशिरसि नीरमिव गलदऽनिलकम्पितं,
____विनय! जानीहि जीवितमसारम्॥१॥ १. पुष्पिताग्रा। २. विदभ्र....विगतं द_-अल्पं यस्मात्। ३. भङ्गरं-भज्यते स्वयमेव इत्येवंशीलं यस्य, तद्। ४,५. शार्दूलविक्रीडित।