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है। इसी तरह विष्णुकुमारकी कथाको कहीं कहीं 'वात्सल्य' अंगमें न देकर 'प्रभावनांग में दिया गया है । । कथासाहित्यकी ऐसी हालत होते हुए और एक नामके अनेक व्यक्ति होते हुए भी स्वामी समंतभद्र जैसे सतर्क विद्वानोंसे, जो अपने प्रत्येक शब्दको बहुत कुछ जाँच तोलकर लिखते हैं, यह आशा नहीं की जा सकती कि वे उन दृष्टांतोंके यथेष्ट मार्मिक अंशका उल्लेख किये विना ही उन्हें केवल उनके नामोंसे ही उद्धृत करनेमें संतोष मानते, और जो दृष्टांत सर्वमान्य नहीं उसे भी प्रयुक्त करते, अथवा विना प्रयोजन ही किसी खास दृष्टांतको दूसरोंपर महत्त्व देते।
(३) यदि ग्रंथकार महोदयको, अपने ग्रंथमें, दृष्टांतोंका उल्लेख करना ही इष्ट होता तो वे प्रत्येक व्यक्तिके कार्यकी गुरुता और उसके फलके महत्त्वको कुछ अँचे तुले शब्दोंमें जरूर दिखलाते । साथ ही, उन दूसरे विषयोंके उदाहरणोंका भी, उसी प्रकारसे, उल्लेख करते जो ग्रंथमें अनुदाहृत स्थितिमें पाये जाते हैं-अर्थात् , जब अहिंसादिक व्रतों के साथ उनके प्रतिपक्षी हिंसादिक पापोंके भी उदाहरण दिये गये हैं तो सम्यग्दर्शनके निःशंकितादि अष्ट अंगोंके साथ उनके प्रतिपक्षी शंकादिक दोषोंके भी उदाहरण देने चाहिये थे। इसी प्रकार तीन मूढ़ताओंको धरनेवाले न धरनेवाले, मद्य-मांस-मधु आदिका सेवन करनेवाले न करनेवाले, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंके पालनमें तत्पर-अतत्पर, 'उच्चैर्गोत्रं प्रणतेः' नामक पद्यमें जिन फलोंका उल्लेख है उनको पानेवाले, सल्लेखनाकी शरण में जानेवाले और न जानेवाले इन सभी व्यक्तियोंका अलग. अलग दृष्टांत रूपसे उल्लेख करना चाहिये था। परंतु यह सब कुछ भी नहीं किया गया और न उक्त छहों पद्योंकी उपस्थितिमें इस न करनेकी कोई माकूल (समुचित) वजह ही मालूम होती है। ऐसी हालतमें उक्त पद्योंकी स्थिति और भी ज्यादा संदेहास्पद हो जाती है।
(४) 'धनश्री' नामका पद्य जिस स्थितिमें पाया जाता है इससे उसके. उपाख्यानोंका विषय अच्छी तरहसे प्रतिभासित नहीं होता। स्वामी समंतभद्रकी रचनामें इस प्रकारका अधूरापन नहीं हो सकता।
(५) ब्रह्मचर्याणुव्रतके उदाहरणमें 'नीली' नामकी एक स्त्रीका जो दृष्टांत दिया गया है वह ग्रंथके संदर्भसे-उसकी रचनासे-मिलता हुआ मालूम नहीं
देखो, 'अरुंगल छेप्पु ' नामक तामिल भाषाका ग्रंथ, जो अंग्रजी जैनगजटमें, अनुवादसहित, मुद्रित हुआ है।
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