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“प्रोषधशब्दः पर्व पर्यायवाची, प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः ।" इत्यादि
— तत्त्वार्थराजवार्तिक ।
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चतुवादित -
“प्रोषधे पर्वण्युपवासः प्रोषधोपवासः ।" — श्लोकवार्तिक 1 " पर्वाणि प्रोषधान्याहुर्मासे चत्वारि तानि च " इत्यादि — यशस्तिलक | “प्रोषधः पर्व पर्यायवाची । पर्वणि चतुर्विधाहारनिवृत्तिः प्रोषधोपवासः " । - चारित्रसार । " इह प्रोषधशब्दः रूढया पर्वसु वर्तते । पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः पूरणात्प- श्र० प्र० टीकरयां हरिभद्रः । बहुत कुछ छानबीन करनेपर भी दूसरा ऐसा कोई भी ग्रंथ हमारे देखने में नहीं आया जिसमें प्रोषधका अर्थ ' सकृद्भुक्ति' और प्रोषधोपवासका अर्थ सुकृद्भुक्तिपूर्वक उपवास' किया गया हो । प्रोषधका अर्थ ' सकृद्भुक्ति' नहीं है, यह बात खुद स्वामी समंतभद्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट होती है जो इसी ग्रंथ में बादको 'प्रोषधोपवास' प्रतिमाका स्वरूप प्रतिपादन करनेके लिये दिया गया है—
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पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ॥
इससे 'चतुराहार विसर्जन' नामका उक्त पद्य स्वामी समंतभद्र के उत्तर कथन के भी विरुद्ध है, यह स्पष्ट हो जाता है । ऐसी हालत में — ग्रंथ के पूर्वोत्तर कथनों से भी विरुद्ध पड़नेके कारण - इस पद्यको स्वामी समंतभद्रका स्वीकार करने में बहुत अधिक संकोच होता है । आश्चर्य नहीं जो यह पद्य इस टीकासे पहले ही, किसी तरहपर, ग्रंथ में प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकारको उसका खयाल भी न हो सका हो ।
अब हम उन पद्यपर विचार करते हैं जो अधिकांश लोगोंकी शंकाका विषय बने हुए हैं। वे पद्य दृष्टांतोंवाले पद्य हैं और उनकी संख्या ग्रंथ में छह पाई जाती हैं । इनमें से ' तावदंजन ' और ' ततो जिनेंद्रभक्त ' नामके पहले दो पद्योंमें सम्यग्दर्शनके निःशंकितादि अष्ट अंगोंमें प्रसिद्ध होनेवाले आठ व्यक्तियोंके नाम दिये हैं । ' मातंगो धनदेवश्च नामके तीसरे पद्य में पांच व्यक्तियोंके नाम देकर यह सूचित किया है कि इन्होंने उत्तम पूजातिशयको प्राप्त किया है । परंतु किस विषयमें ? इसका उत्तर पूर्व पयसे सम्बंध मिलाकर यह दिया जा सकता है कि अहिंसादि पंचाणुत्रतोंके पालन के विषय में ।
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