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मद्यमांसमधुत्यागसंयुक्ताणुव्रतानि नुः । अष्टौ मूलगुणः पंचोदुम्बरैश्चार्भकेष्वपि ॥
- रत्नमाला ।
ऐसी हालत में यह पद्य भी संदेहकी दृष्टिसे देखे जानेके योग्य नहीं । यह अणुव्रतोंके बाद अपने उचित स्थान पर दिया गया है । इसके न रहनेसे, अथव यों कहिये कि श्रावकाचारविषयक ग्रन्थमें श्रावकोंके मूल गुणोंका उल्लेख न होनेसे, ग्रंथमें एक प्रकारकी भारी त्रुटि रह जाती जिसकी स्वामी समन्तभद्र जैसे agrat प्रन्थकारों से कभी आशा नहीं की जा सकती थी । इस लिये यह पद्यः भी क्षेपक नहीं हो सकता ।
संदिग्ध पद्य ।
ग्रंथ में प्रोषघोषवास नामके शिक्षाव्रतका कथन करनेवाले दो पद्य इस प्रकारसे पाये जाते हैं
( १ ) पर्वण्यष्टम्यांच ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ॥ (२) चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्भुक्तिः स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति ॥
इनमें पहले पद्यसे प्रोषधोपवास व्रतका कथन प्रारंभ होता है और उसमें यह बतलाया गया है कि ' पर्वणी ( चतुर्दशी ) तथा अष्टमी के दिनों में सदेच्छा अथवा सदिच्छासे, जो चार प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है उसे प्रोषधोपवास समझना चाहिये' । यह प्रोषधोपवास व्रतका लक्षण हुआ । टीका में भी निम्न वाक्यके द्वारा इसे लक्षण ही सूचित किया है—
'अथेदानीं प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं व्याचक्षाणाः प्राह'
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इस पथके बाद दो पद्य में उपवास दिनके विशेष कर्तव्योंका निर्देश करके व्रतातीचारोंसे पहले, वह दूसरा पद्य दिया है जो ऊपर नंबर २ पर उद्धृत है । इस पद्यमें भी प्रोषधोपवासका लक्षण बतलाया गया हैं । और उसमें वही चार प्रकारके आहार त्यागकी पुनरावृत्ति की गई है। मालूम नहीं, यहाँपर यह पद्य किस उद्देशसे रक्खा गया है । कथनक्रमको देखते हुए, इस पद्यकी स्थिति कुछ संदिग्ध जरूर मालूम होती है। टीकाकार भी उसकी इस स्थितिको स्पष्ट नहीं कर सके । उन्होंने इस पद्यको देते हुए सिर्फ इतना ही लिखा है कि
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