________________
सूचित किया है कि ' नहीं, इन चीजोंका उसके परिमाण नहीं होता, ये तो उसके लिये बिलकुल वर्जनीय हैं। साथ ही, यह भी बतला दिया है कि क्यों वर्जनीय अथवा त्याज्य हैं । यदि यह पद्य यहाँ न दिया जाकर अष्टमूलगुणवाले पद्यके साथ ही दिया जाता तो यहाँ पर इससे मिलते जुलते आशयके 'किसी दूसरे पद्यको देना पड़ता और इस तरह पर ग्रंथमें एक बातकी पुनरुक्ति
अथवा एक पद्यकी व्यर्थकी वृद्धि होती। यहाँ इस पद्यके देनेसे दोनों काम निकल जाते है-पूर्वोद्दिष्ट मद्यादिके त्यागका हेतु भी मालूम हो जाता है
और यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इस व्रतवालेके मद्यादिकका परिमाण नहीं होता, बल्कि उनका सर्वथा त्याग होता है। ऐसी हालतमें यह पद्य संदेहकी दृष्टिसे देखे जानेके योग्य मालूम नहीं होता। ___ कुछ लोग उक्त अष्टमूलगुणवाले पद्यको ही क्षेपक समझते हैं परंतु इसके समर्थनमें उनके पास कोई हेतु या प्रमाण नहीं है। शायद उनका यह खयाल हो कि इस 'पद्यमें पंचाणुव्रतोंको जो मूल गुणोंमें शामिल किया है वह दूसरे ग्रन्थोंके विरुद्ध है जिसमें अणुव्रतोंकी जगह पंच उदुम्बर फलोंके त्यागका विधान पाया जाता है और इतने परसे ही वे लोग इस पद्यको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगे हों । यदि ऐसा है तो यह उनकी निरी भूल है। देशकालकी परिस्थितिके अनुसार आचार्योंका मतमेद परस्पर होता आया है x। उसकी वजहसे कोई पद्य क्षेपक करार नहीं दिया जा सकता। भगवजिनसेन आदि और भी कई आचार्योंने अणुव्रतोंको मूल गुणों में शामिल किया है। पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत और उसकी टीकामें समंतभद्रादिके इस मतभेदका उल्लेख भी किया है । वास्तवमें सकलव्रती मुनियोंके मूलगुणों में जिस प्रकार पंच महाव्रतोंका होना जरूरी है उसी प्रकार देशव्रती श्रावकोंके मूलगुणोंमें पंचाणुव्रतोंका होना भी जरूरी मालूम होता है । देशव्रती श्रावकोंको लक्ष्य करके ही आचार्य महोदयने इन मूल गुणोंकी सृष्टि की है । पंच उदुम्बरवाले मूलगुण प्रायः बालकोंकोअव्रतियों अथवा अनभ्यस्त देशसंयमियोंको-लक्ष्य करके लिखे गये हैं; जैसा कि शिवकोटि आचार्यके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है
x इसके लिये देखो ‘जैनाचार्योंका शासनभेद,' नामके हमारे लेख,जो जैनहितैषीके १४ वें भागमें प्रकाशित हुए हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org