________________
कोरा संग्रहवृत्त नहीं है। उसमें ग्रंथकार महोदयने एक दूसरा ही भाव रक्खा है जो पहले पद्योंसे उपलब्ध नहीं होता। पहले पद्य अपनी अपनी बातका खंडशः उल्लेख करते हैं । वे इस बातको नहीं बतलाते कि एक ही जीव, सम्यग्दर्शनके महात्म्यसे, उन सभी अवस्थाओंको भी क्रमशः प्राप्त कर सकता है-अर्थात् , देवेन्द्र, चक्रवर्ति और तीर्थंकर पदोंको पाता हुआ मोक्षमें जा सकता है । इसी खास बातको बतलानेके लिये इस पद्यका अवतार हुआ मालूम होता है । और इस लिये यह भी क्षेपक' नहीं है।
सल्लेखना अथवा सद्धर्मका फल प्रदार्शति करनेवाले जो 'निःश्रेयस' आदि छह पद्य हैं उनका भी हाल प्रायः ऐसा ही है । वे भी सब एक ही टाइपके पद्य हैं और पुनरुक्तियोंसे रहित पाये जाते हैं । वहाँ पहले पद्यमें जिन 'निःश्रेयस' और 'अभ्युदय' नामके फलोंका उल्लेख है अगले पद्योंमें उन्हीं दोनोंके स्वरूपादिका स्पष्टीकरण किया गया है। अर्थात दूसरेमें निःश्रेयसका और छठेमें अभ्युदयका स्वरूप दिया है और शेष पद्योंमें निःश्रेयसको प्राप्त होने वाले पुरुषोंकी दशाका उल्लेख किया है इस लिये उनमें भी कोई क्षेपक नही और न उनमें परस्पर कोई असम्बद्धता ही पाई जाती है।
इसी तरह पर 'क्षुत्पिपासा' 'परमेष्ठि परंज्योति' और 'अनात्मार्थ विनारागैः' नामके तीनों पद्योंमें भो कोई क्षेपक मालूम नहीं होता । वे आप्तके स्वरूपको विशद करनेके लिये यथावश्यकता और यथास्थान दिये गये हैं । पहले पद्यमें क्षुधा तृषादि दोषोंके अभावकी प्रधानतासे आप्तका स्वरूप बतलाया है और उसके बतलानेकी जरूरत थी, क्योंकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अष्टादशदोषसम्बंधी कथनमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर *पाया जाता है। श्वेताम्बर भाई आप्तके क्षुधा-तृषादिकका होना भी मानते हैं जो दिगम्बरोंको इष्ट नहीं है और ये सब अन्तर उनके प्रायः सिद्धान्तभेदोंपर अवलम्बित हैं । इस पद्यके द्वारा पूर्वपद्यमें आए हुए 'उत्सन्न
__* श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा माने हुए अठारह दोषोंके नाम इस प्रकार हैं१ वीर्यान्तराय, २ भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय, ४ दानान्तराय, ५ लाभान्तराय, ६ निद्रा, ७ भय, ८ अज्ञान, ९ जुगुप्सा, १० हास्य, ११ रति, १२ अरति, १३ राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक, १८ मिथ्यात्व। ( देखो विवेकविलास और जैनतत्त्वादर्श।)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org