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यकी अवस्थाओंके सूचक अगले दो पद्योंके देनेकी जरूरत नहीं रहती। यदि उन्हें दिया भी था तो फिर उनसे अगले दो पद्योंके देनेकी कोई जरूरत न थी। और अन्तका ४१ वाँ पद्य तो बिलकुल ही अनावश्यक जान पडता है, वह साफ तौरसे पुनरुक्तियोंको लिये हुए है-उसमें पहले चार पद्योंके ही आशयका संग्रह किया गया है-या तो उन चार पद्योंको ही देना था और या उन्हें न देकर इस एक पद्यको ही दे देना काफी था।'
इस सम्बंधमें हम सिर्फ इतना ही कहना उचित समझते हैं कि अव्वल तो "जरूरत नहीं रहती' या 'जरूरत नहीं थी' और 'पुनरुक्ति' ये दोनों एक चीज नहीं हैं, दोनोंमें बहुत बड़ा अन्तर है और इस लिये जरूरत न होनेको पुनरुक्ति समझ लेना और उसके आधारपर पद्योंको क्षेपक मान लेना भूलसे खाली नहीं है । दूसरे, ३५ वें पद्यसे मनुष्य और देव पर्यायसम्बंधी जो नतीजा निकलता है वह बहुत कुछ सामान्य है और उससे उन विशेष अवस्थाओंका लाजिमी तौरपर बोध नहीं होता जिनका उल्लेख अगले पद्योंमें किया गया है'एक जीव देव पर्यायको प्राप्त होता हुआ भी भवनत्रिकमें ( भवनवासी-व्यंतर. ज्योतिषियोंमें ) जन्म ले सकता है और स्वर्गमें साधारण देव हो सकता है । उसके लिये यह लाजिमी नहीं होता कि वह स्वर्गमें देवोंका इन्द्र भी हो । इसी तरह मनुष्य पर्यायको प्राप्त होता हुआ कोई जीव मनुष्योंकी दुष्कुल और दरिद्रतादि दोषोंसे रहित कितनी ही जघन्य तथा मध्यम श्रेणियोंमें जन्म ले सकता है । उसके लिये मनुष्यपर्यायमें जाना ही इस बातका कोई नियामक नहीं है कि वह महाकुल और महा धनादिककी उन संपूर्ण विभूतियोंसे युक्त होता हुआ "मानवतिलक' भी हो जिनका उल्लेख ३६ वें पद्यमें किया गया है। और यह तो स्पष्ट ही है कि एक मनुष्य महाकुलादिसम्पन्न मानवतिलक होता हुआ भी, नारायण, बलभद्रादि पदोंसे विभूषित होता हुआ भी, चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकर नहीं होता । अतः सम्यग्दर्शनके माहात्म्य तथा कुलको अच्छी तरहसे प्रख्यापित करनेके लिये उन विशेष अवस्थाओंको दिखलानेकी खास जरूरत थी जिनका उल्लेख बादके चार पद्योंमें किया गया है और इस लिये वे पद्य क्षेपक नहीं हैं। हाँ, अन्तका ४१ वाँ पद्य, यदि वह सचमुच ही 'संग्रहवृत्त' है-जैसा कि टीकाकारने भी प्रकट किया है-कुछ खटकता जरूर है । परंतु हमारी रायमें वह _ यथा-" यत्प्राक् प्रत्येकं श्लोकैः सम्यग्दर्शनस्य फलमुक्तं तद्दर्शनाधिकारस्य समाप्तौ संग्रहवृत्तेनोपसंहृत्य प्रतिपादयन्नाह-"
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