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विचारों द्वारा समर्थ हो सकते हैं। धर्मात्मा वही होता है जिसके पापका निरोध है-अथात् , पापास्रव नहीं होता। विपरीत इसके,. जो पापास्रवसे युक्त है उसे पापी अथवा अधर्मात्मा समझना चाहिये। इस पद्यमें यह बतलाया गया है कि जिसके पास पापके निरोधरूप धर्मसंपत्ति अथवा पुण्यविभूति मौजूद है उसके लिये कुलैश्वयादिकी सम्पत्ति कोई चीज नहीं-अप्रयोजनीय हैउसके अंतरंगमें उससे भी अधिक तथा विशिष्टतर संपत्तिका सद्भाव है जो कालांतरमें प्रकट होगी और इस लिये वह तिरस्कारका पात्र नहीं। इसी तरह जिसकी आत्मामें पापास्रव बना हुआ है उसके कुलैश्वर्यादि सम्पत्ति किसी कामकी नहीं । वह उस पापास्रवके कारण शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गति गमनादिकको रोक नहीं सकेगी। ऐसी संपत्तिको पाकर मद करना मूर्खता है । जो लोग इस संपूर्ण तत्त्वको समझते हैं वे कुलैश्वर्यादिविहित धर्मात्माओंका कदापि तिरस्कार नहीं करते । अगले दो पद्योंमें भी इसी भावको पुष्ट किया गया है-यह समझाया गया है कि, एक मनुष्य जो सम्यग्दर्शनरूपी धर्मसम्पत्तिसे युक्त है वह चाण्डालका पुत्र होने पर भी-कुलादि सम्पत्तिसे अत्यंत गिरा हुआ होने पर भी-तिरस्कारका पात्र नहीं होता । उसे गणधरादिक देवोंने ' देव' कहा है-आराध्य बतलाया है । उसकी दशा उस अंगारके सदृश होती है जो बाह्यमें भस्मसे आच्छादित होने पर भी अन्तरंगमें तेज तथा प्रकाशको लिये हुए है और इसलिये कदापि उपेक्षणीय नहीं होता । मनुष्य तो मनुष्य, एक कुत्ता भी धर्मके प्रतापसे-सम्यग्दर्शनादिके माहात्म्यसे-देव बन जाता है और पापके प्रभावसे-मिथ्यात्वादिके कारण-एक देव भी कुत्तेका जन्म ग्रहण करता है । ऐसी हालतमें दूसरी ऐसी कौनसी सम्पत्ति है जो मनुष्योंको अथवा संसारी जीवोंको धर्मके प्रसादसे प्राप्त न हो सकती हो ? कोई भी नहीं। और इसलिये कुलेश्वर्या दिविहीन धर्मात्मा लोग कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं होते। यहाँ २९ वें पद्यमें 'अन्या सम्पत्'
और २७ वें पद्यमें ' अन्य सम्पदा' पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं । इनमें 'अन्या' और 'अन्य ' विशेषणोंका प्रयोग उस कुलैश्वर्यादि सम्पत्तिको लक्ष्य करके किया गया है जिसे पाकर मूढ लोग मद करते हैं और जिनके उस मदका उल्लेख २५, २६ नंबरके पद्योंमें किया गया है और इससे इन सब पद्योंका भले प्रकार एक सम्बंध स्थापित होता है। अतः उक्त २७ वाँ पद्य असम्बद्ध नहीं है।
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