________________
२५
प्रकाशित कराई है । प्रकाशक हैं ' भाऊ बाबाजी लट्ठे, कुरुंदवाड ।' इस आवृत्ति में यद्यपि, मूल श्लोक वही १५० दिये हैं जो पाठकोंके सामने उपस्थित इस सटीक प्रतिमें पाये जाते हैं परंतु प्रस्तावना में इतना जरूर सूचित किया है कि इन श्लोकोंमें कुछ ' असम्बद्ध' श्लोक भी हैं। साथ ही, यह भी बतलाया है कि, - कनडी लिपिकी एक प्रतिमें, जो उन्हें रा० देवाप्पा उपाध्यायसे प्राप्त हुई थी, ५० श्लोक अधिक हैं जिनमेंसे उन श्लोकोंको छोड़कर जो स्पष्ट रूपसे 'क्षेपक ' मालूम होते थे शेष ७ पद्योंको परिशिष्ट के तौरपर दिया गया है । इस सूचनासे दो बातें पाई जाती हैं— एक तो यह कि, कनडी लिपिमें इस ग्रन्थकी ऐसी भी प्रति है जिसमें २०० श्लोक पाये जाते हैं; दूसरी यह कि, लट्ठे साहबको भी इन डेढ़ सौ श्लोकोंमेंसे कुछ पर क्षेपक होनेका संदेह है जिन्हें वे असम्बद्ध कहते हैं । यद्यपि आपने ऐसे पद्योंकी कोई सूची नहीं दी और न क्षेपकसम्बंधी कोई विशेष विचार ही उपस्थित किया बल्कि उस प्रकार के विचारको वहाँ पर 'अप्रस्तुत' कह कर छोड़ दिया है - तो भी उदाहरण के लिये आपने २७ वें पद्यकी ओर संकेत किया है और उसे असम्बद्ध बतलाया है । वह पद्य इस प्रकार हैयदि पापनिरोधोन्यसंपदा किं प्रयोजनं ।
अथ पापास्स्रवोस्त्यन्यसंपदा किं प्रयोजनं ॥
यह पद्य स्थूलदृष्टि से भले ही कुछ असम्बंद्धसा मालूम होता हो परंतु जब इसके गंभीर अर्थपर गहराई के साथ विचार किया जाता है और पूर्वापर पद्योंके अर्थके साथ उसकी शृंखला मिलाई जाती है तो यह असम्बद्ध नहीं रहता । इसके पहले २५ वें द्यमें मदका अष्टभेदात्मक स्वरूप बतला कर २६ वें पद्यमें उस मदके करनेका दोष दिखलाया गया है और यह जतलाया गया है कि किसी कुल जाति या ऐश्वर्यादिके मदमें आकर धर्मात्माओंको सम्यग्दर्शनादिक युक्त व्यक्तियोंका तिरस्कार नहीं करना चाहिये । इसके बाद विवादस्थ पद्यमेंसे इस बातकी शिक्षा की गई है कि जो लोग कुलैश्वर्यादि सम्पत्ति से युक्त हैं वे अपनी तत्तद्विषयक मदपरिणतिको दूर करनेके लिये कैसे और किस प्रकार के यह भी ज्ञात हुआ है कि इस आवृत्तिका अनुवादादि कार्य भी प्रोफेसर साहब का किया हुआ है ।
X यथा- - " मूल पुस्तकांत म्हणून दिलेल्या १५० श्लोकांत देखील कांहीं असं'बद्ध दिसतात. उदाहरणार्थ २७ वा श्लोक पहा. परंतु हा विचार या ठिकाणीं अप्रस्तुत आहे."
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org