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दोषेण' पदका बहुत कुछ स्पष्टीकरण हो जाता है। दूसरे पद्यमें आप्तके कुछ खास खास नामोंका उल्लेख किया गया है यह बतलाया गया है कि आप्तको “परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, (वीतराग) विमल, कृती, सर्वज्ञ, सार्व तथा शास्ता
आदि भी कहते हैं और नामकी यह परिपाटी दूसरे प्राचीन ग्रंथोंमें भी पाई जाती है जिसका एक उदाहरण श्रीपूज्यपादस्वामीका समाधितंत्र ग्रंथ है, उसमें भी परमात्माकी नामावलीका एक 'निर्मलः केवलः' इत्यादि पद्य दिया है । अस्तु । तीसरे पद्यमें आप्तस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले इस प्रश्नको हल किया गया है कि जब शास्ता वीतराग है तो वह किस तरहपर और किस उद्देशसे हितोपदेश देता है और क्या उसमें उनकी कोई निजी गर्ज है ? इस तरहपर ये तीनों ही पद्य प्रकरणके अनुकूल हैं और ग्रंथके आवश्यक अंग जान पड़ते हैं।
कुछ लोगोंकी दृष्टिमें, भोगोपभोगपरिमाण नामक गुणवतके कथनमें आया हुआ, 'त्रसहतिपरिहरणार्थ ' नामका पद्य भी खटकता है। उनका कहना है कि 'इस पद्यमें मद्य, मांस और मधुके त्यागका जो विधान किया गया है। वह विधान उससे पहले अष्टमूल गुणोंके प्रतिपादक 'मद्यमांसमधुत्यागैः' नामके श्लोकमें आ चुका है । जब मूल गुणों में ही उनका त्याग आचुका तब उत्तर गुणोंमें, बिना किसी विशेषताका उल्लेख किये, उसको फिरसे दुहरानेकी क्या जरूरत थी? इस लिये यह पद्य पुनरुक्त दोषसे युक्त होनेके साथ साथ अनावश्यक भी जान पड़ता है । यदि मांसादिकके त्यागका हेतु बतलानेके लिये इस पद्यके देनेकी जरूरत ही थी तो इसे उक्त 'मद्यमांसमधुत्यागैः' नामक पद्यके • साथ ही उससे ठीक पहले या पीछे देना चाहिये था। वही स्थान इसके लिये उपयुक्त था और तब इसमें पुनरुक्त आदि दोषोंकी कल्पना भी नहीं हो सकती थी।'
ऊपरके इस कथनसे यह तो स्पष्ट है कि यह पद्य मद्यादिकके त्याग विषयक हेतुओंका उल्लेख करनेकी वजहसे कथनकी कुछ विशेषताको लिये हुए जरूर है और इसलिये इसे पुनरुक्त या अनावश्यक नहीं कह सकते। अब देखना सिर्फ इतना ही है कि इस पद्यको अष्ट मूलगुणवाले पद्यके साथ न देकर यहाँ क्यों दिया गया है । हमारी रायमें इसे यहाँ पर देनेका मुख्य हेतु यह मालम होता है कि ग्रंथमें, इससे पहले, जो भोगोपभोगपरिमाण व्रतका तथा ‘भोग' का स्वरूप दिया गया है उससे यह प्रश्न सहज ही
उत्पन्न होता है कि क्या मद्यादिक भोग पदार्थोंका भी इस व्रतवालेको • परिमाण करना चाहिये ? उत्तरमें आचार्य महोदयने इस पद्यके द्वारा, यही
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