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उपलब्धिके और विना इस बातका अच्छी तरहसे निर्णय हुए कि उसमें कोई क्षेपक शामिल हैं या नहीं, अपनी ही कोरी कल्पनाके आधारपर अथवा स्वरु'चिमात्रसे कुछ पद्योंको ( चाहे उनमें कोई क्षेपक भी भले ही हों) इस तरहपर निकाल डालना एक बहुत ही बड़े दुःसाहस तथा भारी धृष्टताका कार्य है। और इस लिये नागसाहबकी यह सब अनुचित कार्रवाई कदापि अभिनंदनके योग्य नहीं हो सकती। आपने उन पद्योंको निकालते समय यह भी नहीं सोचा कि. उनमें से कितने ही पद्य ऐसे हैं जो आजसे कई शताब्दियों पहलेके बने हुए 'ग्रंथोंमें स्वामी समंतभद्रके नामसे उल्लेखित पाये जाते हैं, कितने ही 'श्रावकपदानि देवैः' जैसे पद्योंके निकाल डालनेसे दूसरे पद्योंका महत्त्व तथा विषय कम हुआ जाता है; अथवा रत्नरंडकपर संस्कृत तथा कनड़ी आदिकी कितनी ही टीकाएं ऐसी मिलती हैं जिनमें वे सब पद्य मूलरूपसे दिये हुए हैं, और इस लिये मुझे अधिक सावधानीसे काम लेना चाहिये । सचमुच ही नागसाहबने ऐसा करते हुए बड़ी भारी भूलसे काम लिया है। परंतु यह अच्छा हुआ कि अन्तमें आपको भी अपनी भूल मालूम पड़ गई और आपने अपनी इस नासमझीपर खेद प्रकट करते हुए, यह प्रण किया है कि, मैं भविष्यमें ऐसी कमती श्लोकवाली कोई प्रति इस ग्रंथकी प्रकाशित नहीं करूँगा * ।
यह सब कुछ होते हुए भी, ग्रंथके कितने ही पद्योंपर अभी तक आपका संदेह बना हुआ है । एक पत्र में तो आप हमें यहाँतक सूचित करते हैं कि'क्षेपककी शंका बहुत लोगोंको है परंतु उसका पक्का आधार नहीं मिलता।"
इस वाक्यसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि नाग साहबने जिन पद्योंको “क्षेपक ' करार दिया है उन्हें क्षेपक करार देनेके लिये आपके अथवा आपके मित्रोंके पास कोई पक्का आधार (प्रमाण ) नहीं है और इसलिये आपका यह सब कोरा संदेह ही संदेह है। अस्तु; ग्रंथकी संस्कृतटीकाके साथ इस प्रस्तावनाको पढ़ जानेपर आशा है आपका और आपके मित्रोंका वह संदेह बहुत कुछ दूर हो जायगा । इसी लिये जाँचका यह सब प्रयत्न किया जा रहा है। __ रत्नकरंड श्रावकाचारकी एक आवृत्ति दक्षिण महाराष्ट्र जैनसभाके जनरल सेक्रेटरी ( प्रोफेसर अण्णा साहब बाबाजी लढे ) ने भी मराठी अनुवादादिसहित * देखो ‘जैनबोधक' वर्ष ३२ का छठा अंक । यह नाम हमें पं० नाना रामचन्द्रजी नागके पत्रसे मालूम हुआ है। साथ ही
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