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आवृत्तिमें स्थान नहीं दिया। उन्हें क्षेपक अथवा ग्रन्थसे बाहरकी चीज समझकर एकदम निर्वासित कर दिया है और आपने ऐसा करनेका कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं दिया । हाँ, टाइटिल और प्रस्तावना द्वारा, इतना जरूर सूचित किया है कि, ग्रन्थकी यह द्वितीयावृत्ति. पं० पन्नालाल बाकलीवालकृत ‘जैनधर्मामृतसार ' भाग २ रा नामक पुस्तककी उस प्रथमावृत्तिके अनुकूल है जो नागपुरमें जून सन १८९९ ईसवीको छपी थी। साथ ही, यह भी बतलाया है कि उस पुस्तकमेंसे सिर्फ उन्हीं श्लोकोंको यहाँ छोड़ा गया है जो दूसरे आचार्यके थे, बाकी भगवत्समंतभद्रके १०० श्लोक इस आवृत्तिमें ज्योंके त्यों ग्रहण किये गये हैं । परंतु उस पुस्तकका नाम न तो : उपासकाध्ययन' है और न 'रत्नकरंड,' न नाग साहबकी इस द्वितीयावृत्तिकी तरह उसके सात भाग हैं और न उसमें समंतभद्रके १०० श्लोक ही पाये जाते हैं; बल्कि वह एक संग्रहपुस्तक है जिसमें प्रधानतः रत्नकरंडश्रावकाचार और पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रंथोंसे श्रावकाचार विषयका कुछ कथन प्रश्नोत्तर रूपसे संग्रह किया गया है और उसे 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार' ऐसा नाम भी दिया है। उसमें यथावश्यकता ' रत्नकरंडश्रावकाचार' से कुल ८६ श्लोक उद्धृत किये गये हैं । अतः नाग साहबकी यह द्वितीयावृत्ति उसीके अनुकूल है अथवा उसीके आधार पर प्रकाशित की गई है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मालूम होता है कि उन्होंने इस प्रकारकी बातोंद्वारा * पबलिकके सामने असिल बात पर कुछ
साथ ही, २१, २६, ३२, ४१, ६३, ६७, ६९, ७०, ७६, ७७, ७८, ७९, ८०, ८३, ८७, ८८, ८९, ९१,९३, ९४, ९५,९९, १०१, ११२, और १४८ नम्बरवाले २५ पद्योंको भी निकाले हुए सूचित किया है, जिन्हें वास्तवमें निकाला नहीं गया ! ! और निकाले हुए २, २८, ३१, ३३, ३४, ३६, ३९, ४०, ४७, ४८, ६६, ८५, ८६, १०४, और १४९ नम्बरवाले १५ पद्योंका उस सूचीमें उल्लेख ही नहीं किया ! इस प्रकारके गलत और भ्रामक उल्लेख, निःसन्देह बड़े ही खेदजनक और अनर्थमूलक होते हैं । बम्बई प्रान्तिक सभाने भी शायद इसीपर विश्वास करके अपने २१ वें अधिवेशनके तृतीय प्रस्तावमें ५८ संख्याका गलत उल्लेख किया है । ( देखो जनवरी सन् १९२२ का ‘जैनबोधक ' पत्र ।).
* एक दो बातें और भी ऐसी ही हैं जिन्हें लेख बढ़ःजानेके भयादिसे यहाँ छोड़ा गया है।
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