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दूसरे विधानको माँगता है। यदि पहला पद्य ग्रंथसे निकाल दिया जाय तो यह ' अपि' शब्द बहुत कुछ खटकने लगता है। अतः उक्त पद्य क्षेपक नहीं है और न अगले पद्य के साथ उसका कोई विरोध जान पड़ता है। उसे अनभिज्ञक्षेपक ' बतलाना अपनी ही अनभिज्ञता प्रकट करना है। मालूम होता है कि बाकलीवालजीका ध्यान इस ' अपि ' शब्द पर नहीं गया और इसीसे उन्होंने इसका अनुवाद भी नहीं दिया। साथ ही, उस अनभिज्ञक्षेपकका अर्थ भी उन्हें ठीक प्रतिभासित नहीं हुआ। यही वजह है कि उन्होंने उसमें व्यर्थ ही केवल"
और 'ही'शब्दोंकी कल्पना की और उन्हें क्षेपकत्वके हेतु स्वरूप यह भी लिखनाः पड़ा कि इस पद्यका अन्वय ही ठीक नहीं बैठता । अन्यथा इस पद्यका अन्वय कुछ भी कठिन नहीं है-'सामयिकं बनीयात्'को पद्यके अन्त में कर देनेसे सहज ही अन्वय हो जाता है। दूसरे पद्योंके अन्वयार्थ तथा विषयसम्बंधकी भी प्रायः ऐसी ही हालत है । उन्हें भी आपने उस वक्त ठीक तौरसे समझा मालूम नहीं होता और इस लिये उनका वह सब उल्लेख प्रायः भूलसे भरा हुआ जान' पड़ता है । हालमें, हमारे दर्याफ्त करने पर, बालकीवालजीने, अपने १८ जून सन् १९२३ के पत्र में, इस भूलको स्वीकार भी किया है, जिसे हम उन्हींके शब्दोंमें नीचे प्रकट करते हैं
"रत्नकरंडके प्रथम संस्करणमें जिन पचोंको मैंने क्षेपक ठहराया था उसमें कोई प्रमाण नहीं उस वक्तकी अपनी तुच्छ बुद्धिसे ही ऐसा अनुमान हो गया था । संस्कृतटीकामें सबकी युक्तियुक्त टीका देखनेसे मेरा मन अब नहीं है कि वे क्षेपक हैं । वह प्रथम ही प्रथम मेरा काम था संस्कृत टीका देखने में आई नहीं थी इसीलिये विचारार्थ प्रश्नात्मक (?) नोट कर दिये गये थे । सो मेरी भूल थी।"
यद्यपि यह बाकलीवालजीकी उस वक्तकी भूल थी परंतु इसने कितने ही लोगों को भूलके चक्कर में डाला है, जिसका एक उदाहरण पं० नाना रामचंद्रजी नाग हैं । आपने बाकलीवालजीकी उक्त कृति परसे उन्हीं २१ पद्योंपर:क्षेपक होनेका संदेह किया हो सो नहीं, बल्कि उनमेंसे पंद्रह + पद्योंको बिलकुल ही __ + उक्त २१ पद्योंमेंसे निम्नलिखित छह पद्योंको छोड़कर जो शेष रहते हैं उनको- मद्यमांस, यदनिष्टं, निःश्रेयस, जन्मजरा, विद्यादर्शन, काले कल्प।
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