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किसी पद्यके सम्बंधमें इस प्रकारका कोई विवेचन ही उपस्थित किया कि, वैसा कथन स्वामी समंतभद्रका क्यों कर नहीं हो सकता। और इस लिये आपका संपूर्ण हेतुप्रयोग उपर्युक्त कारणकलापके प्रायः तीसरे नम्बरमें ही आ जाता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि बाकलीवालजीने उन पद्योंको मूल ग्रंथके साथ असम्बद्ध समझा है। उनकी समझमें कुछ पद्योंका अन्वयार्थ ठीक न बैठने या विषयसम्बंध ठीक प्रतिभासित न होने आदिका भी यही प्रयोजन है । अन्यथा, 'चतुरावर्तत्रितय ' नामके पद्यको भी वे 'क्षेपक' बतलाते जिसका अन्वयार्थ उन्हें ठीक नहीं भासा।।
परंतु वास्तवमें वे सभी पद्य वैसे नहीं हैं जैसा कि बाकलीवालजीने उन्हें समझा है । विचार करनेपर उनके अन्वयार्थ तथा विषयसम्बंधमें कोई खास खराबी मालूम नहीं होती और इसका निर्णय ग्रंथकी संस्कृतटीका परसे भी सहजहीमें हो सकता है। उदाहरणके तौर पर हम यहाँ उसी एक पद्यको लेते हैं जिसे बाकलीवालजीने 'अनभिज्ञक्षेपक' लिखा है और जिसके विषयमें आपका विचार संदेहकी कोटिसे निकलकर निश्चयकी हदको पहुँचा हुआ मालूम होता है । साथ ही जिसके सम्बंधमें आपने यहाँ तक कहनेका भी साहस किया है कि “ स्वामी समंतभद्रके ऐसे वचन कदापि नहीं हो सकते।" वह पद्य इस प्रकार है
व्यापारवैमनस्याद्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या ।
सामयिकं बनीयादुपवासे चैकभुक्ते वा ॥ इस पद्यमें, प्रधानतासे और तद्व्रतानुयायी सर्व साधारणकी दृष्टिसे, उपवास तथा एकभुक्तके दिन सामायिक करनेका विधान किया गया है-यह नहीं कहा गया है कि केवल उपवास तथा एकभुक्तके दिन ही सामायिक करना चाहिये । फिर भी इससे कभी कोई यह न समझ ले कि दूसरे दिन अथवा नित्य सामायिक करनेका निषेध है अतः आचार्य महोदयने अगले पद्यमें इस बातको स्पष्ट कर दिया है और लिख दिया है कि नित्य भी (प्रतिदिवसमपि) निरालसी होकर सामायिक करना चाहिये । वह अगला पद्य इस प्रकार है
सामायिकं प्रतिदिवसं यथावद प्यनलसेन चेतव्यं ।
व्रतपंचकपरिपूरणकारणमवधानयुक्तेन ॥ इस पद्यमें 'प्रतिदिवसं ' के साथ ' अपि ' शब्द खास तौरसे ध्यान देने योग्य है और वह इस पद्यसे पहले प्रतिदिवससामायिक ' से भिन्न किसी
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