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पर्दा डालना चाहा है । और वह असल बात यह है कि, आपकी समझमें .यह ग्रन्थ एक 'शतक ' ग्रन्थ मालूम होता है और इसलिये आप इसमें १०० श्लोक मूलके और बाकी सब क्षेपक समझते हैं। इसी बातको आपने अपने चैत्र शुक्ल ४ शक संवत् १८४४ के पत्रमें हम पर इस प्रकार प्रकट भी किया था
"....यह शतक है, और ५० * श्लोक क्षेपक हैं, १०० श्लोक लक्षणके हैं," परंतु यह सब आपकी केवल कल्पना ही कल्पना है । आपके पास इसके समर्थनमें कोई भी प्रमाण मालूम नहीं होता, जिसका यहाँ पर ऊहापोह किया जाता। हाँ एक बार प्रथमावृत्तिके अवसर पर, उसकी प्रस्तावनामें, आपने प्रन्थसे निकाले हुए २८ पद्योंके सम्बंधमें यह प्रकट किया था कि, वे पद्य ग्रंथकी कर्णाटक वगैरह प्रतिमें 'उक्तंच' रूपसे दिये हुए हैं, अतः समंतभद्राचार्यके न होकर दूसरे आचार्यके होनेसे, हमने उन्हें इस पुस्तकमें ग्रहण नहीं किया। प्रस्तावनाके वे शब्द इस प्रकार हैं___ " ह्या पुस्तकाच्या प्रती कर्नाटकांत वगैरे आहेत त्यांत कांहीं 'उक्तंच, म्हणून श्लोक घातलेले आहेत ते श्लोक समंतभद्र आचार्यांचे रचलेले नसून दुसऱ्या आचार्याचे असल्यामुळे ते आम्ही ह्या पुस्तकांत घेतले नाहीत ।" .
परंतु कर्णाटक वगैरहकी वह दूसरी प्रति कौनसी है जिसमें उन २८ पद्योंको 'उक्तं च' रूपसे दिया है, इस बातका कोई पता आप, कुछ विद्वानोंके दर्याफ्त करने पर भी, नहीं बतला सके । और इस लिये आपका उक्त उल्लेख मिथ्या पाया गया। इस प्रकारके मिथ्या उल्लेखोंको करके व्यर्थकी गड़बड़ पैदा करनेमें आपका क्या उद्देश्य अथवा हेतु था, इसे आप ही समझ सकते हैं । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं और न इसे कहनेमें हमें जरा भी संकोच हो सकता है कि, आपकी यह सब कार्रवाई बिलकुल ही अविचारित हुई है और बहुत ही आपत्तिके योग्य है । कुछ पद्योंका क्रम भी आपने बदला है और वह भी आपत्तिके योग्य है। एक माननीय ग्रंथमेंसे, विना किसी प्रबल प्रमाणकी
* यद्यपि उक्त द्वितीयावृत्तिमें ५० की जगह ४९ श्लोक ही निकाले गये हैं . और १०१ छापे गये हैं परंतु प्रस्तावनामें १०० श्लोकोंके छापनेकी ही सूचना
की गई है। इससे संभव है कि अन्तका 'पापमराति' वाला पद्य गलतीसे कम्पोज होकर छप गया हो और, सब पद्योंपर एक क्रमसे नम्बर न होनेके कारण, उसका कुछ खयाल न रहा हो।
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