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अंथसे बाहरकी चीज समझ लिया। साथ ही तेरह*पद्योंको और भी उन्हीं जैसे मानकर उन्हें उसी कोटिमें शामिल कर दिया और इस तरहपर इक्कीसकी जगह अट्ठाईस पद्योंको 'क्षेपक' करार देकर उन्हें 'उपासकाध्ययन' की उस प्रथमावृत्तिसे बिलकुल ही निकाल डाला छापा तक भी नहीं-जिसको उन्होंने शक सं० १८२६ (वि० सं० १९६१) में मराठी अनुवादसहित प्रकाशित किया था। . इसके बाद नाग साहबने अपनी बुद्धिको और भी उसी मार्गमें दौड़ाया और तब आपको अन्धकारमें ही-विना किसी आधार प्रमाणके यह सूझ पड़ा कि इस ग्रंथमें और भी कुछ क्षेपक हैं जिन्हें ग्रंथसे बाहर निकाल देना चाहिये । साथ ही, यह भी मालूम पड़ा कि निकाले हुए पद्योंमेंसे कुछका फिरसे ग्रंथमें प्रवेश कराना चाहिये । और इस लिये पिछले साल, शक सं० १८४४ (वि० सं० १९७९) में जब आपने इस ग्रंथकी द्वितीयावृत्ति प्रकाशित कराई तब आपने अपनी उस सूझ बूझको कार्यमें परिणत कर डाला अर्थात्, प्रथमावृत्तिवाले २८ पद्योंमेंसे २३ + और २६ । नये इस प्रकार ४९ x पद्योंको उत्त . * उन तेरह पद्योंकी सूची इस प्रकार है
ओजस्तेजो, अष्टगुण, नवनिधि, अमरासुर, शिवमजर, रागद्वेष, मकराकर, पंचानां (७२), गृहहारि, संवत्सर, सामायिकं, गृहकर्मणा, उच्चैर्गोत्रं । , _+ पांच पद्य जिन्हें प्रथमावृत्तिमें, ग्रंन्थसे बाहरकी चीज समझकर, निकाल दिया गया था और द्वितीयावृत्तिमें जिनको पुनः प्रविष्ट किया गया है वे इस प्रकार हैंमकराकर, गृहहारि, संवत्सर, सामयिकं, देवाधिदेव ।
+ इन २६ पद्योंमें छह तो वे बाकलीवालजीवाले पद्य हैं जिन्हें आपने प्रथमावृत्तिके अवसर पर क्षेपक नहीं समझा था और जिनके नाम पहले दिये जाचुके हैं । शेष २० पद्योंकी सूची इस प्रकार है
देशयामि, क्षुत्पिपात्सा, परमेष्ठी, अनात्मार्थ, सम्यग्दर्शन (२८), दर्शनं, गृहस्थो, न सम्यक्त्व, मोहतिमिरा, हिंसानृत, सकलं, अल्पफल, सामयिके, शीतोष्ण, अशरण, चतुराहार, नवपुण्यैः, क्षितिगत, श्रावकपदानि, येन स्वयं । __x अक्टूबर सन १९२१ के 'जैनबोधक' में सेठ रावजी सखाराम दोशीने इन पद्योंकी संख्या ५८ ( अट्ठावन ) दी है और निकाले हुए पद्योंके जो क्रमिक नम्बर, समूचे ग्रन्थकी दृष्टिसे, दिये हैं उनसे वह संख्या ५९ हो जाती है।
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