Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार
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कारण नहीं है। यदि आहारकपना होने से ही केवली के कवलाहार की कल्पना करते हो तो सयोगीपना मानने से मन का, प्राण मानने से पांच इंद्रियों का , और शुक्ल लेश्या मानने से कषाय का भी प्रसंग आ जायेगा।
जिनेन्द्र के एकादश परीषह कहे हैं। ऐसा कहना तो उपचार मात्र है। वह तो वेदनीय कर्म विद्यमान है इसलिये कहा है। जैसे – मंत्र, औषधि आदि के प्रभाव से जिसकी विषशक्ति नष्ट हो गई है ऐसा विष प्राण हरण करने में समर्थ नहीं है, वैसे ही शक्तिरहित असातावेदनीय कर्म क्षुधा उत्पन्न कराने में समर्थ नहीं है मणि, मंत्र, औषधि, विद्या, ऋद्धि आदि का अचिन्त्य प्रभाव है।
श्वेताम्बरों के कल्पित सूत्र (शास्त्र हैं, उनमें अनेक कल्पित असंभव रचना लिखी है। जैसे-कोई एक गोशाला नाम के गड़रिया ने महावीर स्वामी से दीक्षा ली, विद्या के अभिमान से महावीर स्वामी से विवाद करने को समोशरण में गया, विवाद किया और विवाद में हार गया। तब क्रोध कर भगवान के ऊपर कोई ऋद्धि से अग्निमय प्रज्वलित तेजोलेश्या चलाई। उससे समोशरण में दो मुनि सिंहासन के नीचे जल गये; और उस तैजसऋद्धि से उत्पन्न अग्निमय ज्वाला भगवान के ऊपर भी जा पहुँची, भगवान को भारी उपसर्ग हुआ। उस अग्नि की ऊष्मा से भगवान को खूनी ऑव वाला पेचिस रोग ( अतिसार) हो गया जो छ: महीना तक रहा। बाद में केवलज्ञान से जानकर शिष्य को कहकर सेठ के घर से किसी पक्षी के जीव का पका मांस मंगाकर खाया तब रोग मिटा। फिर बोले–मैंने ऐसे कुपात्र को बिना समझे दीक्षा दे दी। इस प्रकार अवर्णवाद लिखे हैं।
तीन ज्ञान सहित उत्पन्न वीर जिनेन्द्र का चटशाला में पढ़ना कहते हैं ? तीर्थंकर पहले तो नग्न होकर दीक्षित होते हैं, पश्चात् इन्द्र स्कंध ऊपर वस्त्र रख देता है तब वे वस्त्र को ग्रहण कर लेते हैं ? वीरजिन की वाणी गणधर बिना निष्फल खिरी, किसी ने भी नहीं मानी ?
आदिनाथ को जुगलिया कहते हैं ? कोई एक अन्य जुगलिया मर गया, उसकी स्त्री विधवा हो गई ? उस विधवा स्त्री को ऋषभदेव ने अंगीकार कर लिया ? दूसरी सुनन्दा नाम की रानी भी किसी रिस्ते की ही थी? इन ढूंढिया आदि श्वेताम्बरों को ऐसे अनर्थरूप वचन कहने का भय ही नहीं है।
ऐसा विरूद्ध कहते हैं - वीरजिन पहले देवनन्दा नामक ब्राह्मणी के गर्भ में अवतरित हुए, ८० दिन तक वहाँ रहे। उसके पश्चात् इन्द्र ने विचार किया कि-ऐसे नीच घर में इनका जन्म होना योग्य नहीं है। अतः हरिण्यगवेषी देव को आज्ञा दी, तब उस देव ने जाकर देवनंदा नाम की ब्राह्मणी के गर्भ में से निकालकर, राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के गर्भ में रख दिया। विचार करो कि - जीव अपने द्वारा बांधे हुए कर्मों के कारण कुलादि में उत्पन्न होते हैं, देवो के द्वारा उत्पत्ति स्थान कैसे बदला जा सकता है ? परन्तु मिथ्यादर्शन के प्रभाव से इनके कहने का कोई ठिकाना नहीं है।
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