Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम- सम्यग्दर्शन अधिकार
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उच्चग
तिर्यंचों में बहुत जन्म-मरण करके निगोद में, एक इंद्रिय व विकलत्रय में अनंतकाल तक असंख्यात परिवर्तन करता है। ऐसा जानकर कुदान नहीं करो, कुपात्रदान नहीं करो। अब यहाँ सुपात्र दान का फल कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
गृहकर्मणापि निचितं कर्मविमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथिनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।।११४ ।। अर्थ :- गृह रहित अतिथि जो मुनि हैं उनकी प्रतिपूजा अर्थात् दानसम्मान आदि रूप जो उपासना है, वह गृहस्थ के षट्कर्मों द्वारा उपार्जित जो पाप कर्मरूप मल है, उसे दूर करके उसी प्रकार शुद्ध कर देती है, जैसे शरीर पर लगे हुए रुधिर रूप मल को जल धो देता है।
भावार्थ :- गृहस्थ के नित्य ही आरंभ आदि द्वारा निरन्तर पाप का उपार्जन होता रहता है। उस पाप को धोने में एक मुनीश्वरों को दिया दान ही समर्थ है। जैसे रुधिर लग गया हो तो वह रुधिर से नहीं धुलता है, जल से धुलता है; उसी प्रकार गृहस्थी के आरंभ से उत्पन्न पापमल गृह के त्यागी साधुओं को दिये गये से धुलता है। अब दान का विशेष फल कहनेवाला श्लोक कहते हैं:
उच्चै र्गोत्रं प्रणतेभोगी दानादुपासनात्पूजा
भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु ।।११५ ।। अर्थ :- तप के निधान, साम्यभाव के धारक, बाईस परिषहों को सहने वाले, अपनी देह से निर्ममत्व, पाँच इंद्रियों के विषयों से अत्यन्त विरक्त, अभिमान कषाय आदि रहित, आत्म विशुद्धता के इच्छुक ऐसे उत्तमपात्र जो मुनिराज हैं उन्हें प्रणति अर्थात् नमस्कार करने से स्वर्गलोक में जन्म, स्वर्ग से आकर तीर्थंकर रूप में जन्म, चक्रीरूप में जन्म रूप उच्चगोत्र को तथा सिद्धों की सर्वोच्कृष्ट उच्चता को प्राप्त होते हैं।
उत्तमपात्र को दान देने से भोगभूमि के भोग, देवलोक के भोग, फिर राजा आदि के भोग, फिर अहमिंद्र लोक के भोग पाकर, तीर्थंकर चक्रीपना पाकर, निर्वाण के अनन्त सुख के भोग को प्राप्त करते हैं। उत्तम पात्र जो साधु हैं उनकी उपासना करने से तीन लोक में पूज्य केवली हो जाते हैं। उत्तमपात्र जो साधु हैं उनकी भक्ति करने से सुन्दररूप जो केवलज्ञान का रूप वह प्राप्त हो जाता है।
उत्तमपात्र जो साधु हैं उनका स्तवन करने से तीन लोक में फैल जानेवाली कीर्ति, इंद्र आदि द्वारा स्तवन कीर्तन को प्राप्त हो जाते हैं। अब दान का विशेष प्रभाव कहनेवाला श्लोक कहते हैं :
क्षितिगतमिववटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम ।।११६ ।।
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