Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४६०]
यहाँ पर राजा के समान सभी सामग्री अन्य किसके पास होती है ? जिनको भक्ष्यअभक्ष्य का, योग्य-अयोग्य का विचार नहीं है; हिंसा के कारण महान आरंभ करने का जिन्हें कोई भय नहीं है, दया नहीं हैं; बड़े-बड़े धन्वन्तरी सरीखे अनेक वैद्य व अनेक दवाईयाँ हों तो भी वे कर्म के उदय जनित वेदना को शांत नहीं कर सकते हैं; तब तुम त्यागी-व्रती तथा तुम्हारी वैयावृत्य करने वाले भी दयावान व्रती हैं, वे कैसे तुम्हारा रोग हरण कर लेंगे ?
समस्त वेदना को शान्त करनेवाली जिनेन्द्र के वचनरुप औषधि को ग्रहण करके परम साम्यभावरुप अभेद्य चक्र को धारण करो। पूर्व कर्म के उदय रुप रस को समभावों से भोगों, जिससे अशुभ कर्म की निर्जरा हो जायेगी एवं नवीन कर्म का बन्ध भी नहीं होगा। मरण तो एक पर्याय में एक बार होना ही है. परन्त संयम सहित मरण का अवसर तो यहाँ प्राप्त हुआ हैं; अत: बड़े हर्ष सहित मरण करो, जिससे अनेक जन्म धारण करके अनेक मरण नहीं करना पड़ें।
इस बहुत ही छोटे से जीवन में धर्म छोड़कर आर्त परिणाम नहीं करो। अशुभ कर्म के जिस उदय को रोकने को इन्द्रादि सहित समस्त देव समर्थ नहीं है, उसे अल्पशक्तिधारी कैसे रोक सकेंगे? जिस वृक्ष को भंग करने के लिये गजेन्द्र समर्थ नहीं हैं, उस वृक्ष को दीन निर्बल खरगोश कैसे भंग कर सकेगा ? जिस नदी के प्रबल प्रवाह में महान देह का धारक महाबलवान हाथी बहता चला जाता है, उस प्रवाह में खरगोश के बह जाने का क्या आश्चर्य करना? जिस कर्म के उदय को तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र तथा समस्त देवों के साथ इन्द्र भी रोकने को समर्थ नहीं है, उस कर्म को अन्य कोई रोकने में समर्थ है क्या ? ___कर्म के उदय को अरोक ( रोका नहीं जा सकने वाला) जानकर असाता के उदय में दुःखी नहीं होओ, शूरपना दिखाओ , साम्यभावों से कर्म की निर्जरा करो। यदि कर्म के उदय में दुःखी होवोगे दीनता दिखावोगे, रोओगे, विलाप करोगे तो वेदना नहीं घटेगी, वेदना तो बढ़ेगी ही; किन्तु धर्म, व्रत, संयम, यश, नष्ट हो जायेंगे तथा तुम आर्तध्यान से मरण करके घोर दुःख के भोगनेवाले तिर्यंचों में उत्पन्न हो जाओगे; इसमें कोई संशय नहीं है।
असाता के उदय में सुख के लिये जो रोना है, विलाप करना है, दिनता के वचन बोलना है वह तेल के लिये बालू-रेत का पेलना है; घी के लिये जल का विलोना है; चाँवलों के लिये भूसी को फटकना है; वह केवल खेद के लिये है, आगे के लिये तीव्र बन्ध का कारण है।
जैसे किसी पुरुष ने अज्ञानभाव के कारण पहिले किसी से धन का कर्ज लेकर खर्च कर डाला; अब अवधि पूरी होने पर वह वापिस कर्ज का धन मांगता हैं; न्यायमार्गी तो हर्ष मानकर ऋण चुकाकर , अपना भार उतारकर जैसे सुखी हो जाता है; उसी प्रकार धर्म का धारक पुरुष तो कर्म के उदय में आये रोग, दारिद्र , उपसर्ग, परीषहों के भोगने को ऋण चुकाने-दूर होने के समान मानकर सुखी होता है। वह तो विचार करता है- यह जो आज हमारा पूर्वकृत कर्म का उदय आया है, वह अच्छे समय पर आया है। अभी हमारे पास प्रचुर ज्ञानरुप धन है, भगवान पंच परमेष्ठी की
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