Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार]
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अष्टम - प्रतिमा अधिकार अब श्रावक धर्म के ग्यारह पद हैं, जिसकी जैसी सामर्थ्य हो वैसा ही पद ग्रहण करो, ऐसा कहते हैं :
श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु ।
स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ।।१३६ ।। अर्थ :- भगवान सर्वज्ञदेव ने श्रावक धर्म के ग्यारह स्थान कहे हैं। वे स्थान पूर्व के स्थानों के गुणों सहित क्रम से बढ़ते हुए रहते हैं। श्रावक के ग्यारह पद ये हैं: दर्शन १, व्रत २, सामायिक ३, प्रोषधोपवास ४, सचित्त त्याग ५, रात्रिभोजन त्याग ६, ब्रह्मचर्य ७, आरम्भ त्याग ८, परिग्रह त्याग ९, अनुमति त्याग १०, उद्दिष्ट त्याग ११– ऐसे ये ग्यारह पद हैं।
जो ऊपर के पद का आचरण करेगा, उसके पिछले पद का समस्त व्रत नियम आदि का आचरण धारण रहेगा। ऐसा नहीं होता कि ऊपर के पद के व्रत-नियम तो धारण कर लिए, नीचे के पद के हैं ही नहीं, छोड़ दिये। इस प्रकार जो ब्रह्मचर्य पद धारण करेगा उसके दर्शन आदि छह स्थानों का आचरण नियम से होता है, आठवे पद में नीचे के सातों स्थानों का आचरण होता ही है। अब प्रथम दर्शन पद के धारक का लक्षण कहते हैं :
सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः।
पंचगुरुचरणशरणो दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ।।१३७।। अर्थ :- जो सम्यग्दर्शन के पच्चीस मल दोषों से रहित हो; निरन्तर संसार-वास से, शरीर के साथ से, इन्द्रियों के भोगों से विरक्त हो; पंच परमेष्ठी ही जिसको शरणभूत हों; सर्वज्ञभाषित जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करनेवाला हो; वह सत्यार्थ मार्ग में ग्रहण करने योग्य दार्शनिक श्रावक प्रथम पद का धारक होता है।
भावार्थ :- जो स्याद्वादरुप परमागम के प्रसाद से निश्चय-व्यवहार रुप दोनों नयों से निर्णयपूर्वक स्वतत्त्व-परतत्त्व को जानकर दृढ़ श्रद्धानी हो; जाति-कुलादि अष्ट मद रहित हो; अभिमान की मंदता से स्वयं ही समस्त गुणीजनों के गुण विचारकर अपने को तृण समान लघु मानता हो।
यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के जोर से विषयों में राग नहीं घटा है, गृहस्थी के सभी आरंभों में प्रवर्तता है, तो भी ऐसा जानता है-ये हमारे समस्त मोह के प्रभाव से अज्ञानभाव हैं, जो त्यागने योग्य हैं, कब इनसे छूढूँ ? अभी मेरा रागभाव परिणामों को चलायमान करता है।
धर्मात्माजनों के उत्तम गुण ग्रहण करने में जिसे अनुराग हो, रत्नत्रय के धारकों में बड़ी विनय हो, धर्म के धारकों से बड़ा अनुराग रखता हो वही सम्यग्दृष्टि होता है। जो देहादि से तथा राग-द्वेष-मोहादि से अनादि का मिला हुआ है; तो भी अपने ज्ञायक स्वभाव को भेदविज्ञान
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